शिव पुराण - रुद्र संहिता - कुमार खण्ड - 2

शिव पुराण – रुद्र संहिता – कुमार खण्ड – 2

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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


ब्रह्माजीकी आज्ञासे कुमारका युद्धके लिये जाना, तारकके साथ उनका भीषण संग्राम और उनके द्वारा तारकका वध, तत्पश्चात् देवोंद्वारा कुमारका अभिनन्दन और स्तवन, कुमारका उन्हें वरदान देकर कैलासपर जा शिव-पार्वतीके पास निवास करना तब

ब्रह्माजीने कहा – शंकरसुवन स्वामी कार्तिक! तुम तो देवाधिदेव हो।

पार्वती-सुत! विष्णु और तारकासुरका यह व्यर्थ युद्ध शोभा नहीं दे रहा है; क्योंकि विष्णुके, हाथों इस तारककी मृत्यु नहीं होगी।

यह मुझसे वरदान पाकर अत्यन्त बलवान् हो गया है।

यह मैं बिलकुल सत्य बात कह रहा हूँ।

पार्वतीनन्दन! तुम्हारे अतिरिक्त इस पापीको मारनेवाला दूसरा कोई नहीं है, इसलिये महाप्रभो! तुम्हें मेरे कथनानुसार ही करना चाहिये।

परंतप! तुम शीघ्र ही उस दैत्यका वध करनेके लिये तैयार हो जाओ; क्योंकि पार्वतीपुत्र! तारकका संहार करनेके निमित्त ही तुम शंकरसे उत्पन्न हुए हो।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! यों मेरा कथन सुनकर शंकरनन्दन कुमार कार्तिकेय ठठाकर हँस पड़े और प्रसन्नतापूर्वक बोले – ‘तथास्तु – ऐसा ही होगा।’ तब महान् ऐश्वर्यशाली शंकरसुवन कुमार तारकासुरके वधका निश्चय करके विमानसे उतर पड़े और पैदल हो गये।

जिस समय महाबली शिवपुत्र कुमार अपनी अत्यन्त चमकीली शक्तिको, जो लपटोंसे दमकती हुई एक बड़ी उल्का-सी जान पड़ती थी, हाथमें लेकर पैदल ही दौड़ रहे थे, उस समय उनकी अद् भुत शोभा हो रही थी।

उनके मनमें तनिक भी व्याकुलता नहीं थी।

वे परम प्रचण्ड और अप्रमेय बलशाली थे।

उन षण्मुखको अपनी ओर आते देखकर तारक सुरश्रेष्ठोंसे बोला – ‘क्या शत्रुओंका संहार करनेवाला कुमार यही है? मैं अकेला वीर इसके साथ युद्ध करूँगा और मैं ही समस्त वीरों, प्रमथगणों, लोकपालों तथा श्रीहरि जिनके नायक हैं, उन देवोंको भी मार डालूँगा।’ तदनन्तर देवताओंको दुर्वचन कहकर वह असुर तारक भीषण युद्ध करने लगा।

उस समय बड़ा विकट संग्राम हुआ।

तब शत्रु-वीरोंका संहार करनेवाले कुमारने शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके तारकके वधका विचार किया।

फिर तो महातेजस्वी एवं महाबली कुमार रोषावेशमें आकर गर्जना करने लगे और बहुत बड़ी सेनाके साथ युद्धके लिये डटकर खड़े हो गये।

उस समय समस्त देवताओंने जय-जयकारका शब्द किया और देवर्षियोंने इष्ट वाणीद्वारा उनकी स्तुति की।

तब तारक और कुमारका संग्राम प्रारम्भ हुआ, जो अत्यन्त दुस्सह, महान् भयंकर और सम्पूर्ण प्राणियोंको भयभीत करनेवाला था।

कुमार और तारक दोनों ही शक्ति-युद्धमें परम प्रवीण थे, अतः अत्यन्त रोषावेशमें वे परस्पर एक-दूसरेपर प्रहार करने लगे।

परम पराक्रमी वे दोनों नाना प्रकारके पैंतरे बदलते हुए गर्जना कर रहे थे और अनेक प्रकारसे दाव-पेंचसे एक-दूसरेपर आघात कर रहे थे।

उस समय देवता, गन्धर्व और किन्नर – सभी चुपचाप खड़े होकर वह दृश्य देखते रहे।

उन्हें परम विस्मय हुआ – यहाँतक कि वायुका चलना बंद हो गया, सूर्यकी प्रभा फीकी पड़ गयी और पर्वत एवं वन-काननोंसहित सारी पृथ्वी काँप उठी।

इसी अवसरपर हिमालय आदि पर्वत स्नेहाभिभूत होकर कुमारकी रक्षाके लिये वहाँ आये।

तब उन सभी पर्वतोंको भयभीत देखकर शंकर एवं गिरिजाके पुत्र कुमार उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले।

कुमारने कहा – ‘महाभाग पर्वतो! तुमलोग खेद मत करो।

तुम्हें किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।

मैं आज तुम सब लोगोंकी आँखोंके सामने ही इस पापीका काम तमाम कर दूँगा।’ यों उन पर्वतों तथा देवगणोंको ढाढ़स बँधाकर कुमारने गिरिजा और शम्भुको प्रणाम किया तथा अपनी कान्तिमती शक्तिको हाथमें लिया।

शम्भुपुत्र कुमार महाबली तथा महान् ऐश्वर्यशाली तो थे ही।

जब उन्होंने तारकका वध करनेकी इच्छासे शक्ति हाथमें ली, उस समय उनकी अद्भुत शोभा हुई।

तदनन्तर शंकरजीके तेजसे सम्पन्न कुमारने उस शक्तिसे तारकासुरपर, जो समस्त लोकोंको कष्ट देनेवाला था, प्रहार किया।

उस शक्तिके आघातसे तारकासुरके सभी अंग छिन्न-भिन्न हो गये और सम्पूर्ण असुरगणोंका अधिपति वह महावीर सहसा धराशायी हो गया।

मुने! सबके देखते-देखते वहीं कुमारद्वारा मारे गये तारकके प्राणपखेरू उड़ गये।

उस उत्कृष्ट वीर तारकको महासमरमें प्राणरहित होकर गिरा हुआ देखकर वीरवर कुमारने पुनः उसपर वार नहीं किया।

उस महाबली दैत्यराज तारकके मारे जानेपर देवताओंने बहुत-से असुरोंको मौतके घाट उतार दिया।

उस युद्धमें कुछ असुरोंने भयभीत होकर हाथ जोड़ लिये, कुछके शरीर छिन्न-भिन्न हो गये और हजारों दैत्य मृत्युके अतिथि बन गये।

कुछ शरणार्थी दैत्य अंजलि बाँधकर ‘पाहि-पाहि – रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये’ यों पुकारते हुए कुमारके शरणापन्न हो गये।

कुछ मार डाले गये और कुछ मैदान छोड़कर भाग गये।

सहस्रों दैत्य जीवनकी आशासे भागकर पातालमें घुस गये।

उन सबकी आशाएँ भग्न हो गयी थीं और मुखपर दीनता छायी हुई थी।

मुनीश्वर! इस प्रकार वह सारी दैत्यसेना विनष्ट हो गयी।

देवगणोंके भयसे कोई भी वहाँ ठहर न सका।

उस दुरात्मा तारकके मारे जानेपर सभी लोक निष्कण्टक हो गये और इन्द्र आदि सभी देवता आनन्दमग्न हो गये।

यों कुमारको विजयी देखकर एक साथ ही सम्पूर्ण देवताओं तथा त्रिलोकीके समस्त प्राणियोंको महान् आनन्द प्राप्त हुआ।

उस समय भगवान् शंकर भी कार्तिकेयकी विजयका समाचार पाकर प्रसन्नतासे भर गये और पार्वतीजीके साथ गणोंसे घिरे हुए वहाँ पधारे।

तब जिनके हृदयमें स्नेह समाता नहीं था, वे पार्वतीजी परम प्रेमपूर्वक सूर्यके समान तेजस्वी अपने पुत्र कुमारको अपनी गोदमें लेकर लाड़-प्यार करने लगीं।

उसी अवसरपर अपने पुत्रोंसे घिरे हुए हिमालयने बन्धु-बान्धवों तथा अनुयायियोंके साथ आकर शम्भु, पार्वती और गुहका स्तवन किया।

तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवगण, मुनि, सिद्ध और चारणोंने शिवनन्दन कुमार, शम्भु और परम प्रसन्न हुई पार्वतीकी स्तुति की।

उस समय उपदेवोंने बहुत बड़ी पुष्य-वर्षा की।

सभी प्रकारके बाजे बजने लगे।

विशेषरूपसे जयकार और नमस्कारके शब्द बारंबार उच्चस्वरसे गूँजने लगे।

उस समय वहाँ एक महान् विजयोत्सव मनाया गया, जिसमें कीर्तनकी विशेषता थी और वह स्थान गाने-बजानेके शब्द तथा अधिकाधिक ब्रह्मघोषसे व्याप्त था।

मुने! समस्त देवगणोंने प्रसन्नतापूर्वक गा-बजाकर तथा हाथ जोड़कर भगवान् जगन्नाथकी स्तुति की।

तत्पश्चात् सबसे प्रशंसित तथा अपने गणोंसे घिरे हुए भगवान् रुद्र जगज्जननी भवानीके साथ अपने निवासस्थान कैलास पर्वतको चले गये।

इधर तारकको मारा गया देखकर सभी देवताओं तथा अन्य समस्त प्राणियोंके चेहरेपर हँसी खेलने लगी।

वे भक्तिपूर्वक शंकरसुवन कुमारकी स्तुति करने लगे – ‘देव! तुम दानवश्रेष्ठ तारकका हनन करनेवाले हो, तुम्हें नमस्कार है।

शंकरनन्दन! तुम बाणासुरके प्राणोंका अपहरण करनेवाले तथा प्रलम्बासुरके विनाशक हो।

तुम्हारा स्वरूप परम पवित्र है, तुम्हें हमारा अभिवादन है।’ ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! जब विष्णु आदि देवताओंने इस प्रकार कुमारका स्तवन किया, तब उन प्रभुने सभी देवोंको क्रमशः नया-नया वर प्रदान किया।

तत्पश्चात् पर्वतोंको स्तुति करते देखकर वे शंकर-तनय परम प्रसन्न हुए और उन्हें वर देते हुए बोले।

स्कन्दने कहा – भूधरो! तुम सभी पर्वत तपस्वियोंद्वारा पूजनीय तथा कर्मठ और ज्ञानियोंके लिये सेवनीय होओगे।

ये जो मेरे मातामह (नाना) पर्वतश्रेष्ठ हिमवान् हैं, ये महाभाग आजसे तपस्वियोंके लिये फलदाता होंगे।

तब देवता बोले – कुमार! यों असुरराज तारकको मारकर तथा देवोंको वर प्रदान करके तुमने हम सबको तथा चराचर जगत् को सुखी कर दिया।

अब तुम्हें परम प्रसन्नतापूर्वक अपने माता-पिता पार्वती और शंकरका दर्शन करनेके लिये शिवके निवासभूत कैलासपर चलना चाहिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! तदनन्तर सब देवताओंके साथ विमानपर चढ़कर कुमार स्कन्द शिवजीके समीप कैलास पहुँच गये।

उस समय शिव-शिवाने बड़ा आनन्द मनाया।

देवताओंने शिवजीकी स्तुति की।

शिवजीने उन्हें वरदान तथा अभयदान देकर विदा किया।

मुने! उस अवसरपर देवताओंको परम आनन्द प्राप्त हुआ।

वे शिव, पार्वती तथा शंकरनन्दन कुमारके रमणीय यशका बखान करते हुए अपने-अपने लोकको चले गये।

इधर परमेश्वर शिव भी शिवा, कुमार तथा गणोंके साथ आनन्दपूर्वक उस पर्वतपर निवास करने लगे।

मुने! इस प्रकार जो शिव-भक्तिसे ओतप्रोत, सुखदायक एवं दिव्य है, कुमारका वह सारा चरित्र मैंने तुमसे वर्णन कर दिया; अब और क्या सुनना चाहते हो?
(अध्याय ९ – १२)


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