<< शिव पुराण – रुद्र संहिता – पार्वती खण्ड – 33
शिव पुराण संहिता लिंक – विद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय
वरपक्षके आभूषणोंसे विभूषित शिवाकी नीराजना, कन्यादानके समय वरके साथ सब देवताओंका हिमाचलके घरके आँगनमें विराजना तथा वर-वधूके द्वारा एक-दूसरेका पूजन
ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! तदनन्तर गिरिश्रेष्ठ हिमवान् ने प्रसन्नता और उत्साहके साथ वेदमन्त्रोंद्वारा दुर्गा और शिवका उपस्नान करवाया।
तत्पश्चात् गिरिराजकी प्रार्थनासे श्रीविष्णु आदि देवता तथा मुनि कौतूहलपूर्वक उनके घरके भीतर गये।
वहाँ उन्होंने वैदिक और लौकिक आचारका यथार्थ रीतिसे पालन करके भगवान् शिवके दिये हुए आभूषणोंसे देवी शिवाको अलंकृत किया।
सखियों और ब्राह्मणकी पत्नियोंने पहले पार्वतीको स्नान करवाया, फिर सब प्रकारसे वस्त्राभूषणोंद्वारा विभूषित करके उनकी आरती उतारी।
तीनों लोकोंकी जननी महाशैलपुत्री सुन्दरी शिवा दिव्य वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित होकर मन-ही-मन भगवान् शिवका ध्यान करती हुई वहीं बैठीं।
उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी।
उस अवसरपर दोनों पक्षोंमें महान् आनन्ददायक उत्सव होने लगा।
ब्राह्मणोंको शास्त्रोक्त रीतिसे नाना प्रकारका दान दिया गया।
अन्य लोगोंको भी वहाँ भाँति-भाँतिके बहुत-से द्रव्य बाँटे गये।
विशेष उत्सवके साथ गीत और वाद्य आदिके द्वारा लोगोंका मनोरंजन किया गया।
तदनन्तर मैं ब्रह्मा, भगवान् विष्णु, इन्द्र आदि देवता तथा मुनि—ये सब-के-सब बड़ी प्रसन्नताके साथ सानन्द उत्सव मनाते हुए भक्तिभावसे शिवाको प्रणामकर शिवके चरणारविन्दोंके चिन्तन-पूर्वक हिमाचलकी आज्ञा ले अपने-अपने स्थानपर चले गये।
इसके बाद गर्गने कन्यादानका समय जान हिमाचलसे श्रीशंकर तथा बरातियोंको बुलानेके लिये कहा।
फिर तो बाजे बजने लगे।
हिमाचलके मन्त्रियोंने जाकर वर और बरातियोंसे शीघ्र पधारनेके लिये प्रार्थना की।
वे बोले—‘कन्यादानके लिये उचित समय आ गया है।
अतः आप लोग शीघ्र मण्डपमें पधारें।’ तदनन्तर भगवान् शिवको सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित करके वृषभकी पीठपर बिठाया गया और जय बोलते हुए सब लोग चले।
भगवान् शंकरको आगे करके बाजे बजाते और कौतुक करते हुए सब बराती हिमालयके घरको गये।
हिमाचलके भेजे हुए ब्राह्मण तथा श्रेष्ठ पर्वत कौतूहलपूर्वक शम्भुके आगे-आगे चलते थे।
भगवान् के मस्तकपर बहुत बड़ा छत्र तना हुआ था।
सब ओरसे उन्हें चँवर डुलाया जाता था तथा वे महेश्वर चँदोवेके नीचे होकर चलते थे।
मैं, विष्णु, इन्द्र और लोकपाल आगे रहकर उत्तम शोभासे सुशोभित हो रहे थे।
उस महान् उत्सवके समय शंख, भेरी, पटह, आनक और गोमुख आदि बाजे बारंबार बज रहे थे।
इन सबके साथ जगत् के एकमात्र जीवनबन्धु भगवान् शिव परमेश्वरोचित तेजसे सम्पन्न हो यात्रा कर रहे थे।
उस समय समस्त देवेश्वर उनकी सेवामें उपस्थित हो बड़े हर्षोल्लासके साथ उनपर फूलोंकी वर्षा करते थे।
इस प्रकार पूजित और बहुत-सी स्तुतियोंद्वारा प्रशंसित हो परमेश्वर शिवने यज्ञमण्डपमें प्रवेश किया।
वहाँ श्रेष्ठ पर्वतोंने शिवको वृषभसे उतारा और महान् उत्सवके साथ प्रेमपूर्वक उन्हें घरके भीतर ले गये।
हिमालयने भी घरमें आये हुए देवताओंसहित महेश्वरको विधिपूर्वक भक्तिभावसे प्रणाम करके उनकी आरती उतारी।
फिर महान् उत्सवपूर्वक अपने भाग्यकी सराहना करते हुए उन्होंने अन्य समस्त देवताओं और मुनियोंको प्रणाम करके उन सबका समादर किया।
श्रीविष्णुसहित महेश्वरको तथा मुख्य-मुख्य देवताओंको पाद्य-अर्घ्य देकर हिमालय उन्हें अपने भवनके भीतर ले गये और आँगनमें रत्नमय सिंहासनोंके ऊपर मुझको, विष्णुको, शंकरजीको तथा अन्य विशिष्ट व्यक्तियोंको बिठाया।
उस समय मेनाने अपनी सखियों, ब्राह्मणपत्नियों तथा अन्य पुरन्ध्रियोंके साथ आकर सानन्द आरती उतारीं।
कर्मकाण्डके ज्ञाता पुरोहित महात्मा शंकरके लिये मधुपर्क-पूजन आदि जो-जो आवश्यक कृत्य थे, उन सबको सहर्ष सम्पन्न किया।
फिर मेरे कहनेसे पुरोहितने प्रस्तावके अनुरूप उत्तम मंगलमय कार्य आरम्भ किया।
इसके बाद हिमालयने अन्तर्वेदीमें जहाँ समस्त आभूषणोंसे विभूषित उनकी कृशांगी कन्या वेदीके ऊपर विराजमान थी, वहाँ मेरे और श्रीविष्णुके साथ महादेवजीको ले गये।
तदनन्तर बृहस्पति आदि विद्वान् बड़े उत्साहसे सम्पन्न हो कन्यादानोचित लग्नकी प्रतीक्षा करने लगे।
गर्गने पुण्याहवाचन करते हुए पार्वतीजीकी अंजलिमें चावल भरे और शिवजीके ऊपर अक्षत छोड़ा।
परम उदार सुमुखी पार्वतीने दही, अक्षत, कुश और जलसे वहाँ रुद्रदेवका पूजन किया।
जिनके लिये शिवाने बड़ी भारी तपस्या की थी, उन भगवान् शिवको बड़े प्रेमसे देखती हुई वे वहाँ अत्यन्त शोभा पा रही थीं।
फिर मेरे और गर्गादि मुनियोंके कहनेसे शम्भुने लोकाचारवश शिवाका पूजन किया।
इस प्रकार परस्पर पूजन करते हुए वे दोनों जगन्मय पार्वती-परमेश्वर वहाँ सुशोभित हो रहे थे।
त्रिभुवनकी शोभासे सम्पन्न हो परस्पर देखते हुए उन दोनों दम्पतिकी लक्ष्मी आदि देवियोंने विशेषरूपसे आरती उतारीं।
(अध्याय ४७)
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