शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 10

शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 10

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सतीको शिवसे वरकी प्राप्ति तथा भगवान् शिवका ब्रह्माजीको दक्षके पास भेजकर सतीका वरण करना

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! उधर सतीने आश्विन मासके शुक्ल पक्षकी अष्टमी तिथिको उपवास करके भक्तिभावसे सर्वेश्वर शिवका पूजन किया।

इस प्रकार नन्दाव्रत पूर्ण होनेपर नवमी तिथिको दिनमें ध्यानमग्न हुई सतीको भगवान् शिवने प्रत्यक्ष दर्शन दिया।

उनका श्रीविग्रह सर्वांगसुन्दर एवं गौरवर्णका था।

उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र थे।

भालदेशमें चन्द्रमा शोभा दे रहा था।

उनका चित्त प्रसन्न था और कण्ठमें नील चिह्न दृष्टिगोचर होता था।

उनके चार भुजाएँ थीं।

उन्होंने हाथोंमें त्रिशूल, ब्रह्मकपाल, वर तथा अभय धारण कर रखे थे।

भस्ममय अंगरागसे उनका सारा शरीर उद्भासित हो रहा था।

गंगाजी उनके मस्तककी शोभा बढ़ा रही थीं।

उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे।

वे महान् लावण्यके धाम जान पड़ते थे।

उनके मुख करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रकाशमान एवं आह्लादजनक थे।

उनकी अंगकान्ति करोड़ों कामदेवोंको तिरस्कृत कर रही थी तथा उनकी आकृति स्त्रियोंके लिये सर्वथा ही प्रिय थी।

सतीने ऐसे सौन्दर्य-माधुर्यसे युक्त प्रभु महादेवजीको प्रत्यक्ष देखकर उनके चरणोंकी वन्दना की।

उस समय उनका मुख लज्जासे झुका हुआ था।

तपस्याके पुंजका फल प्रदान करनेवाले महादेवजी उन्हींके लिये कठोर व्रत धारण करनेवाली सतीको पत्नी बनानेके लिये प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हुए भी उनसे इस प्रकार बोले।

महादेवजीने कहा – उत्तम व्रतका पालन करनेवाली दक्षनन्दिनि! मैं तुम्हारे इस व्रतसे बहुत प्रसन्न हूँ।

इसलिये कोई वर माँगो।

तुम्हारे मनको जो अभीष्ट होगा, वही वर मैं तुम्हें दूँगा।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! जगदीश्वर महादेवजी यद्यपि सतीके मनोभावको जानते थे तो भी उनकी बात सुननेके लिये बोले – ‘कोई वर माँगो।’ परंतु सती लज्जाके अधीन हो गयी थीं; इसलिये उनके हृदयमें जो बात थी, उसे वे स्पष्ट शब्दोंमें कह न सकीं।

उनका जो अभीष्ट मनोरथ था, वह लज्जासे आच्छादित हो गया।

प्राणवल्लभ शिवका प्रिय वचन सुनकर सती अत्यन्त प्रेममें मग्न हो गयीं।

इस बातको जानकर भक्तवत्सल भगवान् शंकर बड़े प्रसन्न हुए और शीघ्रतापूर्वक बारंबार कहने लगे – ‘वर माँगो, वर माँगो।’ सत्पुरुषोंके आश्रय-भूत अन्तर्यामी शम्भु सतीकी भक्तिके वशीभूत हो गये थे।

तब सतीने अपनी लज्जाको रोककर महादेवजीसे कहा – ‘वर देनेवाले प्रभो! मुझे मेरी इच्छाके अनुसार ऐसा वर दीजिये जो टल न सके।’ भक्त-वत्सल भगवान् शंकरने देखा सती अपनी बात पूरी नहीं कह पा रही हैं, तब वे स्वयं ही उनसे बोले – ‘देवि! तुम मेरी भार्या हो जाओ।’ अपने अभीष्ट फलको प्रकट करनेवाले उनके इस वचनको सुनकर आनन्दमग्न हुई सती चुपचाप खड़ी रह गयीं; क्योंकि वे मनोवांछित वर पा चुकी थीं।

फिर दक्षकन्या प्रसन्न हो दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुका भक्तवत्सल शिवसे बारंबार कहने लगीं।

सती बोलीं – देवाधिदेव महादेव! प्रभो! जगत्पते! आप मेरे पिताको कहकर वैवाहिक विधिसे मेरा पाणिग्रहण करें।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! सतीकी यह बात सुनकर भक्तवत्सल महेश्वरने प्रेमसे उनकी ओर देखकर कहा – ‘प्रिये! ऐसा ही होगा।’ तब दक्षकन्या सती भी भगवान् शिवको प्रणाम करके भक्तिपूर्वक विदा माँग – जानेकी आज्ञा प्राप्त करके मोह और आनन्दसे युक्त हो माताके पास लौट गयीं।

इधर भगवान् शिव भी हिमालयपर अपने आश्रममें प्रवेश करके दक्षकन्या सतीके वियोगसे कुछ कष्टका अनुभव करते हुए उन्हींका चिन्तन करने लगे।

देवर्षे! फिर मनको एकाग्र करके लौकिक गतिका आश्रय ले भगवान् शंकरने मन-ही-मन मेरा स्मरण किया।

त्रिशूलधारी महेश्वरके स्मरण करनेपर उनकी सिद्धिसे प्रेरित हो मैं तुरंत ही उनके सामने जा खड़ा हुआ।

तात! हिमालयके शिखरपर जहाँ सतीके वियोगका अनुभव करनेवाले महादेवजी विद्यमान थे, वहीं मैं सरस्वतीके साथ उपस्थित हो गया।

देवर्षे! सरस्वतीसहित मुझे आया देख सतीके प्रेमपाशमें बँधे हुए शिव उत्सुकतापूर्वक बोले।

शम्भुने कहा – ब्रह्मन्! मैं जबसे विवाहके कार्यमें स्वार्थबुद्धि कर बैठा हूँ, तबसे अब मुझे इस स्वार्थमें ही स्वत्व-सा प्रतीत होता है।

दक्षकन्या सतीने बड़ी भक्तिसे मेरी आराधना की है।

उसके नन्दाव्रतके प्रभावसे मैंने उसे अभीष्ट वर देनेकी घोषणा की।

ब्रह्मन्! तब उसने मुझसे यह वर माँगा कि ‘आप मेरे पति हो जाइये।’ यह सुनकर सर्वथा संतुष्ट हो मैंने भी कह दिया कि ‘तुम मेरी पत्नी हो जाओ।’ तब दाक्षायणी सती मुझसे बोलीं – ‘जगत्पते! आप मेरे पिताको सूचित करके वैवाहिक विधिसे मुझे ग्रहण करें।’ ब्रह्मन्! उसकी भक्तिसे संतोष होनेके कारण मैंने उसका वह अनुरोध भी स्वीकार कर लिया।

विधातः! तब सती अपनी माताके घर चली गयी और मैं यहाँ चला आया।

इसलिये अब तुम मेरी आज्ञासे दक्षके घर जाओ और ऐसा यत्न करो, जिससे प्रजापति दक्ष शीघ्र ही मुझे अपनी कन्याका दान कर दें।

उनके इस प्रकार आज्ञा देनेपर मैं कृतकृत्य और प्रसन्न हो गया तथा उन भक्तवत्सल विश्वनाथसे इस प्रकार बोला।

मुझ ब्रह्माने कहा – भगवन्! शम्भो! आपने जो कुछ कहा है, उसपर भलीभाँति विचार करके हमलोगोंने पहले ही उसे सुनिश्चित कर दिया है।

वृषभध्वज! इसमें मुख्यतः देवताओंका और मेरा भी स्वार्थ है।

दक्ष स्वयं ही आपको अपनी पुत्री प्रदान करेंगे, किंतु आपकी आज्ञासे मैं भी उनके सामने आपका संदेश कह दूँगा।

सर्वेश्वर महाप्रभु महादेवजीसे ऐसा कहकर मैं अत्यन्त वेगशाली रथके द्वारा दक्षके घर जा पहुँचा।

नारदजीने पूछा – वक्ताओंमें श्रेष्ठ महाभाग! विधातः! बताइये – जब सती घरपर लौटकर आयीं, तब दक्षने उनके लिये क्या किया? ब्रह्माजीने कहा – तपस्या करके मनोवांछित वर पाकर सती जब घरको लौट गयीं, तब वहाँ उन्होंने माता-पिताको प्रणाम किया।

सतीने अपनी सखीके द्वारा माता-पिताको तपस्या-सम्बन्धी सब समाचार कहलवाया।

सखीने यह भी सूचित किया कि ‘सतीको महेश्वरसे वरकी प्राप्ति हुई है, वे सतीकी भक्तिसे बहुत संतुष्ट हुए हैं।’ सखीके मुँहसे सारा वृत्तान्त सुनकर माता-पिताको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ और उन्होंने महान् उत्सव किया।

उदारचेता दक्ष और महामनस्विनी वीरिणीने ब्राह्मणोंको उनकी इच्छाके अनुसार द्रव्य दिया तथा अन्यान्य अंधों और दीनोंको भी धन बाँटा।

प्रसन्नता बढ़ानेवाली अपनी पुत्रीको हृदयसे लगाकर माता वीरिणीने उसका मस्तक सूँघा और आनन्दमग्न होकर उसकी बारंबार प्रशंसा की।

तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होनेपर धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ दक्ष इस चिन्तामें पड़े कि ‘मैं अपनी इस पुत्रीका विवाह भगवान् शंकरके साथ किस तरह करूँ? महादेवजी प्रसन्न होकर आये थे, पर वे तो चले गये।

अब मेरी पुत्रीके लिये वे फिर कैसे यहाँ आयेंगे? यदि किसीको शीघ्र ही भगवान् शिवके निकट भेजा जाय तो यह भी उचित नहीं जान पड़ता; क्योंकि यदि वे इस तरह अनुरोध करनेपर भी मेरी पुत्रीको ग्रहण न करें तो मेरी याचना निष्फल हो जायगी।’ इस प्रकारकी चिन्तामें पड़े हुए प्रजापति दक्षके सामने मैं सरस्वतीके साथ सहसा उपस्थित हुआ।

मुझ पिताको आया देख दक्ष प्रणाम करके विनीतभावसे खड़े हो गये।

उन्होंने मुझ स्वयंभूको यथायोग्य आसन दिया।

तदनन्तर दक्षने जब मेरे आनेका कारण पूछा, तब मैंने सब बातें बताकर उनसे कहा – ‘प्रजापते! भगवान् शंकरने तुम्हारी पुत्रीको प्राप्त करनेके लिये निश्चय ही मुझे तुम्हारे पास भेजा है; इस विषयमें जो श्रेष्ठ कृत्य हो, उसका निश्चय करो।

जैसे सतीने नाना प्रकारके भावोंसे तथा सात्त्विक व्रतके द्वारा भगवान् शिवकी आराधना की है, उसी तरह वे भी सतीकी आराधना करते हैं।

इसलिये दक्ष! भगवान् शिवके लिये ही संकल्पित एवं प्रकट हुई अपनी इस पुत्रीको तुम अविलम्ब उनकी सेवामें सौंप दो, इससे तुम कृतकृत्य हो जाओगे।

मैं नारदके साथ जाकर उन्हें तुम्हारे घर ले आऊँगा।

फिर तुम उन्हींके लिये उत्पन्न हुई अपनी यह पुत्री उनके हाथमें दे दो।’ ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! मेरी यह बात सुनकर मेरे पुत्र दक्षको बड़ा हर्ष हुआ।

वे अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले – ‘पिताजी! ऐसा ही होगा।’ मुने! तब मैं अत्यन्त हर्षित हो वहाँसे उस स्थानको लौटा, जहाँ लोक-कल्याणमें तत्पर रहनेवाले भगवान् शिव बड़ी उत्सुकतासे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे।

नारद! मेरे लौट आनेपर स्त्री और पुत्रीसहित प्रजापति दक्ष भी पूर्णकाम हो गये।

वे इतने संतुष्ट हुए, मानो अमृत पीकर अघा गये हों।

(अध्याय १७)


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