<< शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 11
शिव पुराण संहिता लिंक – विद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय
सती और शिवके द्वारा अग्निकी परिक्रमा, श्रीहरिद्वारा शिवतत्त्वका वर्णन, शिवका ब्रह्माजीको दिये हुए वरके अनुसार वेदीपर सदाके लिये अवस्थान तथा शिव और सतीका विदा हो कैलासपर जाना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! कन्यादान करके दक्षने भगवान् शंकरको नाना प्रकारकी वस्तुएँ दहेजमें दीं।
यह सब करके वे बड़े प्रसन्न हुए।
फिर उन्होंने ब्राह्मणोंको भी नाना प्रकारके धन बाँटे।
तत्पश्चात् लक्ष्मी-सहित भगवान् विष्णु शम्भुके पास आ हाथ जोड़कर खड़े हुए और यों बोले – ‘देवदेव महादेव! दयासागर! प्रभो! तात! आप सम्पूर्ण जगत् के पिता हैं और सती देवी सबकी माता हैं।
आप दोनों सत्पुरुषोंके कल्याण तथा दुष्टोंके दमनके लिये सदा लीलापूर्वक अवतार ग्रहण करते हैं – यह सनातन श्रुतिका कथन है।
आप चिकने नील अंजनके समान शोभावाली सतीके साथ जिस प्रकार शोभा पा रहे हैं, मैं उससे उलटे लक्ष्मीके साथ शोभा पा रहा हूँ – अर्थात् सती नीलवर्णा तथा आप गौरवर्ण हैं, उससे उलटे मैं नीलवर्ण तथा लक्ष्मी गौरवर्णा हैं।’ नारद! मैं देवी सतीके पास आकर गृह्यसूत्रोक्त विधिसे विस्तारपूर्वक सारा अग्निकार्य कराने लगा।
मुझ आचार्य तथा ब्राह्मणोंकी आज्ञासे शिवा और शिवने बड़े हर्षके साथ विधिपूर्वक अग्निकी परिक्रमा की।
उस समय वहाँ बड़ा अद्भुत उत्सव मनाया गया।
गाजे, बाजे और नृत्यके साथ होनेवाला वह उत्सव सबको बड़ा सुखद जान पड़ा।
तदनन्तर भगवान् विष्णु बोले – सदाशिव! मैं आपकी आज्ञासे यहाँ शिवतत्त्वका वर्णन करता हूँ।
समस्त देवता तथा दूसरे-दूसरे मुनि अपने मनको एकाग्र करके इस विषयको सुनें।
भगवन्! आप प्रधान और अप्रधान (प्रकृति और उससे अतीत) हैं।
आपके अनेक भाग हैं।
फिर भी आप भागरहित हैं।
ज्योतिर्मय स्वरूपवाले आप परमेश्वरके ही हम तीनों देवता अंश हैं।
आप कौन, मैं कौन और ब्रह्मा कौन हैं? आप परमात्माके ही ये तीन अंश हैं, जो सृष्टि, पालन और संहार करनेके कारण एक-दूसरेसे भिन्न प्रतीत होते हैं।
आप अपने स्वरूपका चिन्तन कीजिये।
आपने स्वयं ही लीलापूर्वक शरीर धारण किया है।
आप निर्गुण ब्रह्मरूपसे एक हैं।
आप ही सगुण ब्रह्म हैं और हम ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र – तीनों आपके अंश हैं।
जैसे एक ही शरीरके भिन्न-भिन्न अवयव मस्तक, ग्रीवा आदि नाम धारण करते हैं तथापि उस शरीरसे वे भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार हम तीनों अंश आप परमेश्वरके ही अंग हैं।
जो ज्योतिर्मय, आकाशके समान सर्वव्यापी एवं निर्लेप, स्वयं ही अपना धाम, पुराण, कूटस्थ, अव्यक्त, अनन्त, नित्य तथा दीर्घ आदि विशेषणोंसे रहित निर्विशेष ब्रह्म है, वही आप शिव हैं, अतः आप ही सब कुछ हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुनीश्वर! भगवान् विष्णुकी यह बात सुनकर महादेवजी बड़े प्रसन्न हुए।
तदनन्तर उस विवाह-यज्ञके स्वामी (यजमान) परमेश्वर शिव प्रसन्न हो लौकिकी गतिका आश्रय ले हाथ जोड़कर खड़े हुए मुझ ब्रह्मासे प्रेमपूर्वक बोले।
शिवने कहा – ब्रह्मन्! आपने सारा वैवाहिक कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करा दिया।
अब मैं प्रसन्न हूँ।
आप मेरे आचार्य हैं।
बताइये, आपको क्या दक्षिणा दूँ! सुरज्येष्ठ! आप उस दक्षिणाको माँगिये।
महाभाग! यदि वह अत्यन्त दुर्लभ हो तो भी उसे शीघ्र कहिये।
मुझे आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है।
मुने! भगवान् शंकरका यह वचन सुनकर मैं हाथ जोड़ विनीत चित्तसे उन्हें बारंबार प्रणाम करके बोला – ‘देवेश! यदि आप प्रसन्न हों और महेश्वर! यदि मैं वर पानेके योग्य होऊँ तो प्रसन्नतापूर्वक जो बात कहता हूँ, उसे आप पूर्ण कीजिये।
महादेव! आप इसी रूपमें इसी वेदीपर सदा विराजमान रहें, जिससे आपके दर्शनसे मनुष्योंके पाप धुल जायँ।
चन्द्रशेखर! आपका सांनिध्य होनेसे मैं इस वेदीके समीप आश्रम बनाकर तपस्या करूँ – यह मेरी अभिलाषा है।
चैत्रके शुक्ल पक्षकी त्रयोदशीको पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रमें रविवारके दिन इस भूतलपर जो मनुष्य भक्तिभावसे आपका दर्शन करे, उसके सारे पाप तत्काल नष्ट हो जायँ, विपुल पुण्यकी वृद्धि हो और समस्त रोगोंका सर्वथा नाश हो जाय।
जो नारी दुर्भगा, वन्ध्या, कानी अथवा रूपहीना हो, वह भी आपके दर्शनमात्रसे ही अवश्य निर्दोष हो जाय।’ मेरी यह बात उनकी आत्माको सुख देनेवाली थी।
इसे सुनकर भगवान् शिवने प्रसन्नचित्तसे कहा – ‘विधातः! ऐसा ही होगा।
मैं तुम्हारे कहनेसे सम्पूर्ण जगत् के हितके लिये अपनी पत्नी सतीके साथ इस वेदीपर सुस्थिरभावसे स्थित रहूँगा।’ ऐसा कहकर पत्नीसहित भगवान् शिव अपनी अंशरूपिणी मूर्तिको प्रकट करके वेदीके मध्यभागमें विराजमान हो गये।
तत्पश्चात् स्वजनोंपर स्नेह रखनेवाले परमेश्वर शंकर दक्षसे विदा ले अपनी पत्नी सतीके साथ कैलास जानेको उद्यत हुए।
उस समय उत्तम बुद्धिवाले दक्षने विनयसे मस्तक झुका हाथ जोड़ भगवान् वृषभध्वजकी प्रेमपूर्वक स्तुति की।
फिर श्रीविष्णु आदि समस्त देवताओं, मुनियों और शिवगणोंने नमस्कारपूर्वक नाना प्रकारकी स्तुति करके बड़े आनन्दसे जय-जयकार किया।
तदनन्तर दक्षकी आज्ञासे भगवान् शिवने प्रसन्नतापूर्वक सतीको वृषभकी पीठपर बिठाया और स्वयं भी उसपर आरूढ़ हो वे प्रभु हिमालय पर्वतकी ओर चले।
भगवान् शंकरके समीप वृषभपर बैठी हुई सुन्दर दाँत और मनोहर हासवाली सती अपने नील-श्यामवर्णके कारण चन्द्रमामें नीली रेखाके समान शोभा पा रही थीं।
उस समय उन नवदम्पतिकी शोभा देख श्रीविष्णु आदि समस्त देवता, मरीचि आदि महर्षि तथा दूसरे लोग ठगे-से रह गये।
हिल-डुल भी न सके तथा दक्ष भी मोहित हो गये।
तत्पश्चात् कोई बाजे बजाने लगे और दूसरे लोग मधुर स्वरसे गीत गाने लगे।
कितने ही लोग प्रसन्नतापूर्वक शिवके कल्याणमय उज्ज्वल यशका गान करते हुए उनके पीछे-पीछे चले।
भगवान् शंकरने बीच रास्तेसे दक्षको प्रसन्नतापूर्वक लौटा दिया और स्वयं प्रेमाकुल हो प्रमथगणोंके साथ अपने धामको जा पहुँचे।
यद्यपि भगवान् शिवने विष्णु आदि देवताओंको भी विदा कर दिया था, तो भी वे बड़ी प्रसन्नता और भक्तिके साथ पुनः उनके साथ हो लिये।
उन सब देवताओं, प्रमथगणों तथा अपनी पत्नी सतीके साथ हर्षभरे शम्भु हिमालय पर्वतसे सुशोभित अपने कैलासधाममें जा पहुँचे।
वहाँ जाकर उन्होंने देवताओं, मुनियों तथा दूसरे लोगोंका बहुत आदर-सम्मान करके उन्हें प्रसन्नतापूर्वक विदा किया।
शम्भुकी आज्ञा ले वे विष्णु आदि सब देवता तथा मुनि नमस्कार और स्तुति करके मुखपर प्रसन्नताकी छाप लिये अपने-अपने धामको चले गये।
सदाशिवका चिन्तन करनेवाले भगवान् शिव भी अत्यन्त आनन्दित हो हिमालयके शिखरपर रहकर अपनी पत्नी दक्षकन्या सतीके साथ विहार करने लगे।
सूतजी कहते हैं – मुनियो! पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें भगवान् शंकर और सतीका जिस प्रकार विवाह हुआ, वह सारा प्रसंग मैंने तुमसे कह दिया।
जो विवाहकालमें, यज्ञमें अथवा किसी भी शुभ कार्यके आरम्भमें भगवान् शंकरकी पूजा करके शान्तचित्तसे इस कथाको सुनता है, उसका सारा कर्म तथा वैवाहिक आयोजन बिना किसी विघ्न-बाधाके पूर्ण होता है और दूसरे शुभ कर्म भी सदा निर्विघ्न पूर्ण होते हैं।
इस शुभ उपाख्यानको प्रेमपूर्वक सुनकर विवाहित होनेवाली कन्या भी सुख, सौभाग्य, सुशीलता और सदाचार आदि सद् गुणोंसे सम्पन्न साध्वी स्त्री तथा पुत्रवती होती है।
(अध्याय १९-२०)
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