शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 18

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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


दक्षयज्ञका समाचार पा सतीका शिवसे वहाँ चलनेके लिये अनुरोध, दक्षके शिवद्रोहको जानकर भगवान् शिवकी आज्ञासे देवी सतीका पिताके यज्ञमण्डपकी ओर शिवगणोंके साथ प्रस्थान

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! जब देवर्षिगण बड़े उत्साह और हर्षके साथ दक्षके यज्ञमें जा रहे थे, उसी समय दक्षकन्या देवी सती गन्धमादन पर्वतपर चँदोवेसे युक्त धारागृहमें सखियोंसे घिरी हुई भाँति-भाँतिकी उत्तम क्रीडाएँ कर रही थीं।

प्रसन्नतापूर्वक क्रीडामें लगी हुई देवी सतीने उस समय रोहिणीके साथ दक्षयज्ञमें जाते हुए चन्द्रमाको देखा।

देखकर वे अपनी हितकारिणी प्राणप्यारी श्रेष्ठ सखी विजयासे बोलीं – ‘मेरी सखियोंमें श्रेष्ठ प्राणप्रिये विजये! जल्दी जाकर पूछ तो आ, ये चन्द्रदेव रोहिणीके साथ कहाँ जा रहे हैं?’ सतीके इस प्रकार आज्ञा देनेपर विजया तुरंत उनके पास गयी और उसने यथोचित शिष्टाचारके साथ पूछा – ‘चन्द्रदेव! आप कहाँ जा रहे हैं? विजयाका यह प्रश्न सुनकर चन्द्रदेवने अपनी यात्राका उद्देश्य आदरपूर्वक बताया।

दक्षके यहाँ होनेवाले यज्ञोत्सव आदिका सारा वृत्तान्त कहा।

वह सब सुनकर विजया बड़ी उतावलीके साथ देवीके पास आयी और चन्द्रमाने जो कुछ कहा था, वह सब उसने कह सुनाया।

उसे सुनकर कालिका सती देवीको बड़ा विस्मय हुआ।

अपने यहाँ सूचना न मिलनेका क्या कारण है, यह बहुत सोचने-विचारनेपर भी उनकी समझमें नहीं आया।

तब उन्होंने पार्षदोंसे घिरे अपने स्वामी भगवान् शिवके पास आकर भगवान् शंकरसे पूछा।

सती बोलीं – प्रभो! मैंने सुना है कि मेरे पिताजीके यहाँ कोई बहुत बड़ा यज्ञ हो रहा है।

उसमें बहुत बड़ा उत्सव होगा।

उसमें सब देवर्षि एकत्र हो रहे हैं।

देवदेवेश्वर! पिताजीके उस महान् यज्ञमें चलनेकी रुचि आपको क्यों नहीं हो रही है? इस विषयमें जो बात हो, वह सब बताइये।

महादेव! सुहृदोंका यह धर्म है कि वे सुहृदोंके साथ मिलें-जुलें।

यह मिलन उनके महान् प्रेमको बढ़ानेवाला होता है।

अतः प्रभो! मेरे स्वामी! आप मेरी प्रार्थना मानकर सर्वथा प्रयत्न करके मेरे साथ पिताजीकी यज्ञशालामें आज ही चलिये।

सतीकी यह बात सुनकर भगवान् महेश्वरदेव, जिनका हृदय दक्षके वाग्वाणोंसे घायल हो चुका था, मधुर वाणीमें बोले – ‘देवि! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही हो गये हैं।

जो प्रमुख देवता और ऋषि अभिमानी, मूढ़ और ज्ञानशून्य है, वे ही सब तुम्हारे पिताके यज्ञमें गये हैं।

जो लोग बिना बुलाये दूसरेके घर जाते हैं, वे वहाँ अनादर पाते हैं, जो मृत्युसे भी बढ़कर कष्टदायक है।

अतः प्रिये! तुमको और मुझको तो विशेषरूपसे दक्षके यज्ञमें नहीं जाना चाहिये (क्योंकि वहाँ हमें बुलाया नहीं गया है)।

यह मैंने सच्ची बात कही है।’ महात्मा महेश्वरके ऐसा कहनेपर सती रोषपूर्वक बोलीं – शम्भो! आप सबके ईश्वर हैं।

जिनके जानेसे यज्ञ सफल होता है, उन्हीं आपको मेरे दुष्ट पिताने इस समय आमन्त्रित नहीं किया है।

प्रभो! उस दुरात्माका अभिप्राय क्या है, वह सब मैं जानना चाहती हूँ।

साथ ही वहाँ आये हुए सम्पूर्ण दुरात्मा देवर्षियोंके मनोभावका भी मैं पता लगाना चाहती हूँ।

अतः प्रभो! मैं आज ही पिताके यज्ञमें जाती हूँ।

नाथ! महेश्वर! आप मुझे वहाँ जानेकी आज्ञा दे दें।

देवी सतीके ऐसा कहनेपर सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, सृष्टिकर्ता एवं कल्याणस्वरूप साक्षात् भगवान् रुद्र उनसे इस प्रकार बोले।

शिवने कहा – उत्तम व्रतका पालन करनेवाली देवि! यदि इस प्रकार तुम्हारी रुचि वहाँ अवश्य जानेके लिये हो गयी है तो मेरी आज्ञासे तुम शीघ्र अपने पिताके यज्ञमें जाओ।

यह नन्दी वृषभ सुसज्जित है, तुम एक महारानीके अनुरूप राजोपचार साथ ले सादर इसपर सवार हो बहुसंख्यक प्रमथगणोंके साथ यात्रा करो।

प्रिये! इस विभूषित वृषभपर आरूढ होओ।

रुद्रके इस प्रकार आदेश देनेपर सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत सती देवी सब साधनोंसे युक्त हो पिताके घरकी ओर चलीं।

परमात्मा शिवने उन्हें सुन्दर वस्त्र, आभूषण तथा परम उज्ज्वल छत्र, चामर आदि महाराजोचित उपचार दिये।

भगवान् शिवकी आज्ञासे साठ हजार रुद्रगण बड़ी प्रसन्नता और महान् उत्साहके साथ कौतूहलपूर्वक सतीके साथ गये।

उस समय वहाँ यज्ञके लिये यात्रा करते समय सब ओर महान् उत्सव होने लगा।

महादेवजीके गणोंने शिवप्रिया सतीके लिये बड़ा भारी उत्सव रचाया।

वे सभी गण कौतूहलपूर्ण कार्य करने तथा सती और शिवके यशको गाने लगे।

शिवके प्रिय और महान् वीर प्रमथगण प्रसन्नतापूर्वक उछलते-कूदते चल रहे थे।

जगदम्बाके यात्राकालमें सब प्रकारसे बड़ी भारी शोभा हो रही थी।

उस समय जो सुखद जय-जयकार आदिका शब्द प्रकट हुआ, उससे तीनों लोक गूँज उठे।

(अध्याय २८)


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