<< शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 20
शिव पुराण संहिता लिंक – विद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय
आकाशवाणीद्वारा दक्षकी भर्त्सना, उनके विनाशकी सूचना तथा समस्त देवताओंको यज्ञमण्डपसे निकल जानेकी प्रेरणा
ब्रह्माजी कहते हैं – मुनीश्वर! इसी बीचमें वहाँ दक्ष तथा देवता आदिके सुनते हुए आकाशवाणीने यह यथार्थ बात कही – “रे-रे दुराचारी दक्ष! ओ दम्भाचारपरायण महामूढ़! यह तूने कैसा अनर्थकारी कर्म कर डाला? ओ मूर्ख! शिवभक्तराज दधीचिके कथनको भी तूने प्रामाणिक नहीं माना, जो तेरे लिये सब प्रकारसे आनन्ददायक और मंगलकारी था।
वे ब्राह्मण देवता तुझे दुस्सह शाप देकर तेरी यज्ञशालासे निकल गये तो भी तुझ मूढ़ने अपने मनमें कुछ भी नहीं समझा।
उसके बाद तेरे घरमें मंगलमयी सतीदेवी स्वतः पधारीं, जो तेरी अपनी ही पुत्री थीं; किंतु तूने उनका भी परम आदर नहीं किया! ऐसा क्यों हुआ? ज्ञानदुर्बल दक्ष! तूने सती और महादेवजीकी पूजा नहीं की, यह क्या किया? ‘मैं ब्रह्माजीका बेटा हूँ’ ऐसा समझकर तू व्यर्थ ही घमंडमें भरा रहता है और इसीलिये तुझपर मोह छा गया है।
वे सतीदेवी ही सत्पुरुषोंकी आराध्या देवी हैं अथवा सदा आराधना करनेके योग्य हैं, वे समस्त पुण्योंका फल देनेवाली, तीनों लोकोंकी माता, कल्याणस्वरूपा और भगवान् शंकरके आधे अंगमें निवास करनेवाली हैं।
वे सती देवी ही पूजित होनेपर सदा सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करनेवाली हैं।
वे ही महेश्वरकी शक्ति हैं और अपने भक्तोंको सब प्रकारके मंगल देती हैं।
वे सतीदेवी ही पूजित होनेपर सदा संसारका भय दूर करती हैं, मनोवांछित फल देती हैं तथा वे ही समस्त उपद्रवोंको नष्ट करनेवाली देवी हैं।
वे सती ही सदा पूजित होनेपर कीर्ति और सम्पत्ति प्रदान करती हैं।
वे ही पराशक्ति तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली परमेश्वरी हैं।
वे सती ही जगत् को जन्म देनेवाली माता, जगत् की रक्षा करनेवाली अनादि शक्ति और प्रलयकालमें जगत् का संहार करनेवाली हैं।
वे जगन्माता सती ही भगवान् विष्णुकी मातारूपसे सुशोभित होनेवाली तथा ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, अग्नि एवं सूर्यदेव आदिकी जननी मानी गयी हैं।
वे सती ही तप, धर्म और दान आदिका फल देनेवाली हैं।
वे ही शम्भुशक्ति महादेवी हैं तथा दुष्टोंका हनन करनेवाली परात्पर शक्ति हैं।
ऐसी महिमावाली सतीदेवी जिनकी सदा प्रिय धर्मपत्नी हैं, उन भगवान् महादेवको तूने यज्ञमें भाग नहीं दिया! अरे! तू कैसा मूढ़ और कुविचारी है।
“भगवान् शिव ही सबके स्वामी तथा परात्पर परमेश्वर हैं।
वे समस्त देवताओंके सम्यक् सेव्य हैं और सबका कल्याण करनेवाले हैं।
इन्हींके दर्शनकी इच्छासे सिद्ध पुरुष तपस्या करते हैं और इन्हींके साक्षात्कारकी अभिलाषा मनमें लेकर योगीलोग योग-साधनामें प्रवृत्त होते हैं।
अनन्त धन-धान्य और यज्ञ-याग आदिका सबसे महान् फल यही बताया गया है कि भगवान् शंकरका दर्शन सुलभ हो।
शिव ही जगत् का धारण-पोषण करनेवाले हैं।
वे ही समस्त विद्याओंके पति एवं सब कुछ करनेमें समर्थ हैं।
आदिविद्याके श्रेष्ठ स्वामी और समस्त मंगलोंके भी मंगल वे ही हैं।
दुष्ट दक्ष! तूने उनकी शक्तिका आज सत्कार नहीं किया है।
इसीलिये इस यज्ञका विनाश हो जायगा।
पूजनीय व्यक्तियोंकी पूजा न करनेसे अमंगल होता ही है।
तूने परम पूज्य शिवस्वरूपा सतीका पूजन नहीं किया है।
शेषनाग अपने सहस्र मस्तकोंसे प्रतिदिन प्रसन्नतापूर्वक जिनके चरणोंकी रज धारण करते है, उन्हीं भगवान् शिवकी शक्ति सतीदेवी थीं।
जिनके चरणकमलोंका निरन्तर ध्यान और सादर पूजन करके ब्रह्माजी ब्रह्मत्वको प्राप्त हुए हैं, उन्हीं भगवान् शिवकी प्रिय पत्नी सतीदेवी थीं।
जिनके चरणकमलोंका निरन्तर ध्यान और सादर पूजन करके इन्द्र आदि लोकपाल अपने-अपने उत्तम पदको प्राप्त हुए है, वे भगवान् शिव सम्पूर्ण जगत् के पिता हैं और शक्तिस्वरूपा सतीदेवी जगत् की माता कही गयी हैं।
मूढ़ दक्ष! तूने उन माता-पिताका सत्कार नहीं किया, फिर तेरा कल्याण कैसे होगा।
“तुझपर दुर्भाग्यका आक्रमण हो गया और विपत्तियाँ टूट पड़ीं; क्योंकि तूने उन भवानी सती और भगवान् शंकरकी भक्ति-भावसे आराधना नहीं की।
‘कल्याणकारी शम्भुका पूजन न करके भी मैं कल्याणका भागी हो सकता हूँ’ यह तेरा कैसा गर्व है? वह दुर्वार गर्व आज नष्ट हो जायगा।
इन देवताओंमेंसे कौन ऐसा है, जो सर्वेश्वर शिवसे विमुख होकर तेरी सहायता करेगा? मुझे तो ऐसा कोई देवता नहीं दिखायी देता।
यदि देवता इस समय तेरी सहायता करेंगे तो जलती आगसे खेलनेवाले पतंगोंके समान नष्ट हो जायँगे।
आज तेरा मुँह जल जाय, तेरे यज्ञका नाश हो जाय और जितने तेरे सहायक हैं वे भी आज शीघ्र ही जल मरें।
इस दुरात्मा दक्षकी जो सहायता करनेवाले हैं, उन समस्त देवताओंके लिये आज शपथ है।
वे तेरे अमंगलके लिये ही तेरी सहायतासे विरत हो जायँ।
समस्त देवता आज इस यज्ञमण्डपसे निकलकर अपने-अपने स्थानको चले जायँ, अन्यथा सब लोगोंका सब प्रकारसे नाश हो जायगा।
अन्य सब मुनि और नाग आदि भी इस यज्ञसे निकल जायँ, अन्यथा आज सब लोगोंका सर्वथा नाश हो जायगा।
श्रीहरे! और विधातः! आपलोग भी इस यज्ञमण्डपसे शीघ्र निकल जाइये।” ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! सम्पूर्ण यज्ञशालामें बैठे हुए लोगोंसे ऐसा कहकर सबका कल्याण करनेवाली वह आकाशवाणी मौन हो गयी।
(अध्याय ३१)
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