शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 25

शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 25

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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको युद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत तथा विष्णु आदिका अपने लोकमें जाना एवं दक्ष और यज्ञका विनाश करके वीरभद्रका कैलासको लौटना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! उस समय देवताओंके साथ शिवगणोंका घोर युद्ध आरम्भ हो गया।

उसमें सारे देवता पराजित हुए और भागने लगे।

वे एक-दूसरेका साथ छोड़कर स्वर्गलोकमें चले गये।

उस समय केवल महाबली इन्द्र आदि लोकपाल ही उस दारुण संग्राममें धैर्य धारण करके उत्सुकतापूर्वक खड़े रहे।

तदनन्तर इन्द्र आदि सब देवता मिलकर उस समरांगणमें बृहस्पतिजीको विनीतभावसे नमस्कार करके पूछने लगे।

लोकपाल बोले – गुरुदेव बृहस्पते! तात! महाप्राज्ञ! दयानिधे! शीघ्र बताइये, हम जानना चाहते हैं कि हमारी विजय कैसे होगी? उनकी यह बात सुनकर बृहस्पतिने प्रयत्नपूर्वक भगवान् शम्भुका स्मरण किया और ज्ञानदुर्बल महेन्द्रसे कहा।

बृहस्पति बोले – इन्द्र! भगवान् विष्णुने पहले जो कुछ कहा था, वह सब इस समय घटित हो गया।

मैं उसीको स्पष्ट कर रहा हूँ।

सावधान होकर सुनो।

समस्त कर्मोंका फल देनेवाला जो कोई ईश्वर है, वह कर्ताका ही आश्रय लेता है – कर्म करनेवालेको ही उस कर्मका फल देता है।

जो कर्म करता ही नहीं, उसको फल देनेमें वह भी समर्थ नहीं है (अतः जो ईश्वरको जानकर उसका आश्रय लेकर सत्कर्म करता है, उसीको उस कर्मका फल मिलता है, ईश्वरद्रोहीको नहीं)।

न मन्त्र, न ओषधियाँ, न समस्त आभिचारिक कर्म, न लौकिक पुरुष, न कर्म, न वेद, न पूर्व और उत्तरमीमांसा तथा न नाना वेदोंसे युक्त अन्यान्य शास्त्र ही ईश्वरको जाननेमें समर्थ होते हैं – ऐसा प्राचीन विद्वानोंका कथन है।

अनन्यशरण भक्तोंको छोड़कर दूसरे लोग सम्पूर्ण वेदोंका दस हजार बार स्वाध्याय करके भी महेश्वरको भलीभाँति नहीं जान सकते – यह महाश्रुतिका कथन है।

अवश्य भगवान् शिवके अनुग्रहसे ही सर्वथा शान्त, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टिसे सदाशिवके तत्त्वका साक्षात्कार (ज्ञान) हो सकता है।

सुरेश्वर! क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य, इसका विवेचन करना अभीष्ट होनेपर मैं जो इसमें सिद्धिका उत्तम अंश है, उसीका प्रतिपादन करूँगा।

तुम अपने हितके लिये उसे ध्यान देकर सुनो।

इन्द्र! तुम लोकपालोंके साथ आज नादान बनकर दक्ष-यज्ञमें आ गये।

बताओ तो, यहाँ क्या पराक्रम करोगे? भगवान् रुद्र जिनके सहायक हैं, ऐसे ये परम क्रोधी रुद्रगण इस यज्ञमें विघ्न डालनेके लिये आये हैं और अपना काम पूरा करेंगे – इसमें संशय नहीं है।

मैं सत्य-सत्य कहता हूँ कि इस यज्ञके विघ्नका निवारण करनेके लिये वस्तुतः तुममेंसे किसीके पास भी सर्वथा कोई उपाय नहीं है।

बृहस्पतिकी यह बात सुनकर वे इन्द्रसहित समस्त लोकपाल बड़ी चिन्तामें पड़ गये।

तब महावीर रुद्रगणोंसे घिरे हुए वीरभद्रने मन-ही-मन भगवान् शंकरका स्मरण करके इन्द्र आदि लोकपालोंको डाँटा और इसके पश्चात् रुद्रगणोंके नायक वीरभद्रने रोषसे भरकर तुरंत ही सम्पूर्ण देवताओंको तीखे बाणोंसे घायल कर दिया।

उन बाणोंकी चोट खाकर इन्द्र आदि समस्त सुरेश्वर भागते हुए दसों दिशाओंमें चले गये।

जब लोकपाल चले गये और देवता भाग खड़े हुए तब वीरभद्र अपने गणोंके साथ यज्ञशालाके समीप गये।

उस समय वहाँ विद्यमान समस्त ऋषि अत्यन्त भयभीत हो परमेश्वर श्रीहरिसे रक्षाकी प्रार्थना करनेके लिये सहसा नतमस्तक हो शीघ्र बोले – ‘देवदेव! रमानाथ! सर्वेश्वर! महाप्रभो! आप दक्षके यज्ञकी रक्षा कीजिये।

आप ही यज्ञ हैं, इसमें संशय नहीं है।

यज्ञ आपका कर्म, रूप और अंग है।

आप यज्ञके रक्षक हैं।

अतः दक्ष-यज्ञकी रक्षा कीजिये।

आपके सिवा दूसरा कोई इसका रक्षक नहीं है।’ ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऋषियोंका यह वचन सुनकर मेरे सहित भगवान् विष्णु वीरभद्रके साथ युद्ध करनेकी इच्छासे चले।

श्रीहरिको युद्धके लिये उद्यत देख शत्रुमर्दन वीरभद्र, जो वीर प्रमथगणोंसे घिरे हुए थे, कड़े शब्दोंमें भगवान् विष्णुको डाँटने लगे।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! वीरभद्रकी यह बात सुनकर बुद्धिमान् देवेश्वर विष्णु वहाँ प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए बोले।

श्रीविष्णुने कहा – वीरभद्र! आज तुम्हारे सामने मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो – मैं भगवान् शंकरका सेवक हूँ, तुम मुझे रुद्रदेवसे विमुख न कहो।

दक्ष अज्ञानी है।

कर्मकाण्डमें ही इसकी निष्ठा है।

इसने मूढ़तावश पहले मुझसे बारंबार अपने यज्ञमें चलनेके लिये प्रार्थना की थी।

मैं भक्तके अधीन ठहरा, इसलिये चला आया।

भगवान् महेश्वर भी भक्तके अधीन रहते हैं।

तात! दक्ष मेरा भक्त है।

इसीलिये मुझे यहाँ आना पड़ा है।

रुद्रके क्रोधसे उत्पन्न हुए वीर! तुम रुद्र-तेजःस्वरूप हो, उत्तम प्रतापके आश्रय हो, मेरी प्रतिज्ञा सुनो।

मैं तुम्हें आगे बढ़नेसे रोकता हूँ और तुम मुझे रोको।

परिणाम वही होगा, जो होनेवाला होगा।

मैं पराक्रम करूँगा।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर महाबाहु वीरभद्र हँसकर बोला – ‘आप मेरे प्रभुके प्रिय भक्त हैं, यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है।’ इतना कहकर गणनायक वीरभद्र हँस पड़ा और विनयसे नतमस्तक हो बड़ी प्रसन्नताके साथ श्रीविष्णुदेवसे कहने लगा।

वीरभद्रने कहा – महाप्रभो! मैंने आपके भावकी परीक्षाके लिये कड़ी बातें कही थीं।

इस समय यथार्थ बात कहता हूँ, सावधान होकर सुनो।

हरे! जैसे शिव हैं, वैसे आप हैं।

जैसे आप हैं, वैसे शिव हैं।

ऐसा वेद कहते हैं और वेदोंका यह कथन शिवकी आज्ञाके अनुसार ही है।* रमानाथ! भगवान् शिवकी आज्ञासे हम सब लोग उनके सेवक ही हैं; तथापि मैंने जो बात कही है, वह इस वाद-विवादके अवसरके अनुरूप ही है।

आप मेरी हर बातको आपके प्रति आदरके भावसे ही कही गयी समझिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – वीरभद्रका यह वचन सुनकर भगवान् श्रीहरि हँस पड़े और उसके लिये हितकर वचन बोले।

श्रीविष्णुने कहा – महावीर! तुम मेरे साथ निःशंक होकर युद्ध करो।

तुम्हारे अस्त्रोंसे शरीरके भर जानेपर ही मैं अपने आश्रमको जाऊँगा।

ब्रह्माजी कहते हैं – ऐसा कहकर भगवान् विष्णु चुप हो गये और युद्धके लिये कमर कसकर डट गये।

महाबली वीरभद्र भी अपने गणोंके साथ युद्धके लिये तैयार हो गये।

नारद! तदनन्तर भगवान् विष्णु और वीरभद्रमें घोर युद्ध हुआ।

अन्तमें वीरभद्रने भगवान् विष्णुके चक्रको स्तम्भित कर दिया तथा शार्ङ्गधनुषके तीन टुकड़े कर डाले।

तब मेरे द्वारा एवं सरस्वतीद्वारा बोधित हुए श्रीविष्णुने उस महान् गणनायक वीरभद्रको असह्य तेजसे सम्पन्न जानकर वहाँसे अन्तर्धान होनेका विचार किया।

दूसरे देवता भी यह जान गये कि सतीके प्रति जो अन्याय हुआ है, उसीका यह सब भावी परिणाम है।

दूसरोंके लिये इस संकटका सामना करना अत्यन्त कठिन है।

यह जानकर वे सब देवता अपने सेवकोंके साथ स्वतन्त्र सर्वेश्वर शिवका स्मरण करके अपने-अपने लोकको चले गये।

मैं भी पुत्रके दुःखसे पीड़ित हो सत्यलोकमें चला आया और अत्यन्त दुःखसे आतुर हो सोचने लगा कि अब मुझे क्या करना चाहिये।

मेरे तथा श्रीविष्णुके चले जानेपर मुनियोंसहित समस्त यज्ञके आधार रहनेवाले देवता शिवगणोंद्वारा पराजित हो भाग गये।

उस उपद्रवको देखकर और उस महामखका विध्वंस निकट जानकर वह यज्ञ भी अत्यन्त भयभीत हो मृगका रूप धारण करके वहाँसे भागा।

मृगके रूपमें आकाशकी ओर भागते देख वीरभद्रने उसे पकड़ लिया और उसका मस्तक काट डाला।

फिर उन्होंने मुनियों तथा देवताओंके अंग-भंग कर दिये और बहुतोंको मार डाला।

प्रतापी मणिभद्रने भृगुको उठाकर पटक दिया और उनकी छातीको पैरसे दबाकर तत्काल उनकी दाढ़ी-मूँछ नोच ली।

चण्डने बड़े वेगसे पूषाके दाँत उखाड़ लिये; क्योंकि पूर्वकालमें जिस समय महादेवजीको दक्षके द्वारा गालियाँ दी जा रही थीं, उस समय वे दाँत दिखा-दिखाकर हँसे थे।

नन्दीने भगको रोषपूर्वक पृथ्वीपर दे मारा और उनकी दोनों आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष शिवजीको शाप दे रहे थे, उस समय वे आँखोंके संकेतसे अपना अनुमोदन सूचित कर रहे थे।

वहाँ रुद्रगणनायकोंने स्वधा, स्वाहा और दक्षिणा देवियोंकी बड़ी विडम्बना (दुर्दशा) की।

वहाँ जो मन्त्र-तन्त्र तथा दूसरे लोग थे, उनका भी बहुत तिरस्कार किया।

ब्रह्मपुत्र दक्ष भयके मारे अन्तर्वेदीके भीतर छिप गये।

वीरभद्र उनका पता लगाकर उन्हें बलपूर्वक पकड़ लाये।

फिर उनके दोनों गाल पकड़कर उन्होंने उनके मस्तकपर तलवारसे आघात किया।

परंतु योगके प्रभावसे दक्षका सिर अभेद्य हो गया था, इसलिये कट नहीं सका।

जब वीरभद्रको ज्ञात हुआ कि सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंसे इनके मस्तकका भेदन नहीं हो सकता, तब उन्होंने दक्षकी छातीपर पैर रखकर दबाया और दोनों हाथोंसे गर्दन मरोड़कर तोड़ डाली।

फिर शिवद्रोही दुष्ट दक्षके उस सिरको गणनायक वीरभद्रने अग्निकुण्डमें डाल दिया।

तदनन्तर जैसे सूर्य घोर अन्धकारराशिका नाश करके उदयाचलपर आरूढ़ होते हैं, उसी प्रकार वीरभद्र दक्ष और उनके यज्ञका विध्वंस करके कृतकार्य हो तुरंत ही वहाँसे उत्तम कैलास पर्वतको चले गये।

वीरभद्रको काम पूरा करके आया देख परमेश्वर शिव मन-ही-मन बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने उन्हें वीर प्रमथ-गणोंका अध्यक्ष बना दिया।

(अध्याय ३६-३७)

* यथा शिवस्तथा त्वं हि यथा त्वं च तथा शिवः।

इति वेदा वर्णयन्ति शिवशासनतो हरे।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ३६।६६)


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