शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 8

शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 8

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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


सतीकी तपस्यासे संतुष्ट देवताओंका कैलासमें जाकर भगवान् शिवका स्तवन करना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! एक दिन मैंने तुम्हारे साथ जाकर पिताके पास खड़ी हुई सतीको देखा।

वह तीनों लोकोंकी सारभूता सुन्दरी थी।

उसके पिताने मुझे नमस्कार करके तुम्हारा भी सत्कार किया।

यह देख लोक-लीलाका अनुसरण करनेवाली सतीने भक्ति और प्रसन्नताके साथ मुझको और तुमको भी प्रणाम किया।

नारद! तदनन्तर सतीकी ओर देखते हुए हम और तुम दक्षके दिये हुए शुभ आसनपर बैठ गये।

तत्पश्चात् मैंने उस विनयशीला बालिकासे कहा – ‘सती! जो केवल तुम्हें ही चाहते हैं और तुम्हारे मनमें भी एकमात्र जिनकी ही कामना है, उन्हीं सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेवजीको तुम पतिरूपमें प्राप्त करो।

शुभे! जो तुम्हारे सिवा दूसरी किसी स्त्रीको पत्नीरूपमें न तो ग्रहण कर सके हैं, न करते हैं और न भविष्यमें ही ग्रहण करेंगे, वे ही भगवान् शिव तुम्हारे पति हों।

वे तुम्हारे ही योग्य हैं, दूसरेके नहीं।’ नारद! सतीसे ऐसा कहकर मैं दक्षके घरमें देरतक ठहरा रहा।

फिर उनसे विदा ले मैं और तुम दोनों अपने-अपने स्थानको चले आये।

मेरी बातको सुनकर दक्षको बड़ी प्रसन्नता हुई।

उनकी सारी मानसिक चिन्ता दूर हो गयी और उन्होंने अपनी पुत्रीको परमेश्वरी समझकर गोदमें उठा लिया।

इस प्रकार कुमारोचित सुन्दर लीला-विहारोंसे सुशोभित होती हुई भक्तवत्सला सती, जो स्वेच्छासे मानवरूप धारण करके प्रकट हुई थीं, कौमारावस्था पार कर गयीं।

बाल्यावस्था बिताकर किंचित् युवावस्थाको प्राप्त हुई सती अत्यन्त तेज एवं शोभासे सम्पन्न हो सम्पूर्ण अंगोंसे मनोहर दिखायी देने लगीं।

लोकेश दक्षने देखा कि सतीके शरीरमें युवावस्थाके लक्षण प्रकट होने लगे हैं।

तब उनके मनमें यह चिन्ता हुई कि मैं महादेवजीके साथ इनका विवाह कैसे करूँ? सती स्वयं भी महादेवजीको पानेकी प्रतिदिन अभिलाषा रखती थीं।

अतः पिताके मनोभावको समझकर वे माताके निकट गयीं।

विशाल बुद्धिवाली सतीरूपिणी परमेश्वरी शिवाने अपनी माता वीरिणीसे भगवान् शंकरकी प्रसन्नताके निमित्त तपस्या करनेके लिये आज्ञा माँगी।

माताकी आज्ञा मिल गयी।

अतः दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाली सतीने महेश्वरको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये अपने घरपर ही उनकी आराधना आरम्भ की।

आश्विन मासमें नन्दा (प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी) तिथियोंमें उन्होंने भक्तिपूर्वक गुड़, भात और नमक चढ़ाकर भगवान् शिवका पूजन किया और उन्हें नमस्कार करके उसी नियमके साथ उस मासको व्यतीत किया।

कार्तिक मासकी चतुर्दशीको सजाकर रखे हुए मालपूओं और खीरसे परमेश्वर शिवकी आराधना करके वे निरन्तर उनका चिन्तन करने लगीं।

मार्गशीर्ष मासके कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथिको तिल, जौ और चावलसे हरकी पूजा करके ज्योतिर्मय दीप दिखाकर अथवा आरती करके सती दिन बिताती थीं।

पौष मासके शुक्लपक्षकी सप्तमीको रातभर जागरण करके प्रातःकाल खिचड़ीका नैवेद्य लगा वे शिवकी पूजा करती थीं।

माघकी पूर्णिमाको रातमें जागरण करके सबेरे नदीमें नहातीं और गीले वस्त्रसे ही तटपर बैठकर भगवान् शंकरकी पूजा करती थीं।

फाल्गुन मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको रातमें जागरण करके उस रात्रिके चारों पहरोंमें शिवजीकी विशेष पूजा करतीं और नटोंद्वारा नाटक भी कराती थीं।

चैत्र मासके शुक्लपक्षकी चतुर्दशीको वे दिन-रात शिवका स्मरण करती हुई समय बितातीं और ढाकके फूलों तथा दवनोंसे भगवान् शिवकी पूजा करती थीं।

वैशाख शुक्ला तृतीयाको सती तिलका आहार करके रहतीं और नये जौके भातसे रुद्रदेवकी पूजा करके उस महीनेको बिताती थीं।

ज्येष्ठकी पूर्णिमाको रातमें सुन्दर वस्त्रों तथा भटकटैयाके फूलोंसे शंकरजीकी पूजा करके वे निराहार रहकर ही वह मास व्यतीत करती थीं।

आषाढ़के शुक्लपक्षकी चतुर्दशीको काले वस्त्र और भटकटैयाके फूलोंसे वे रुद्रदेवका पूजन करती थीं।

श्रावण मासके शुक्लपक्षकी अष्टमी एवं चतुर्दशीको वे यज्ञोपवीतों, वस्त्रों तथा कुशकी पवित्रीसे शिवकी पूजा किया करती थीं।

भाद्रपद मासके कृष्णपक्षकी त्रयोदशी तिथिको नाना प्रकारके फूलों और फलोंसे शिवका पूजन करके सती चतुर्दशी तिथिको केवल जलका आहार किया करतीं।

भाँति-भाँतिके फलों, फूलों और उस समय उत्पन्न होनेवाले अन्नोंद्वारा वे शिवकी पूजा करतीं और महीनेभर अत्यन्त नियमित आहार करके केवल जपमें लगी रहती थीं।

सभी महीनोंमें सारे दिन सती शिवकी आराधनामें ही संलग्न रहती थीं।

अपनी इच्छासे मानवरूप धारण करनेवाली वे देवी दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करती थीं।

इस प्रकार नन्दाव्रतको पूर्णरूपसे समाप्त करके भगवान् शिवमें अनन्यभाव रखनेवाली सती एकाग्रचित्त हो बड़े प्रेमसे भगवान् शिवका ध्यान करने लगीं तथा उस ध्यानमें ही निश्चलभावसे स्थित हो गयीं।

मुने! इसी समय सब देवता और ऋषि भगवान् विष्णु और मुझको आगे करके सतीकी तपस्या देखनेके लिये गये।

वहाँ आकर देवताओंने देखा, सती मूर्तिमती दूसरी सिद्धिके समान जान पड़ती हैं।

वे भगवान् शिवके ध्यानमें निमग्न हो उस समय सिद्धावस्थाको पहुँच गयी थीं।

समस्त देवताओंने बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ दोनों हाथ जोड़कर सतीको नमस्कार किया, मुनियोंने भी मस्तक झुकाये तथा श्रीहरि आदिके मनमें प्रीति उमड़ आयी।

श्रीविष्णु आदि सब देवता और मुनि आश्चर्यचकित हो सती देवीकी तपस्याकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

फिर देवीको प्रणाम करके वे देवता और मुनि तुरंत ही गिरिश्रेष्ठ कैलासको गये, जो भगवान् शिवको बहुत ही प्रिय है।

सावित्रीके साथ मैं और लक्ष्मीके साथ भगवान् वासुदेव भी प्रसन्नतापूर्वक महादेवजीके निकट गये।

वहाँ जाकर भगवान् शिवको देखते ही बड़े वेगसे प्रणाम करके सब देवताओंने दोनों हाथ जोड़ विनीतभावसे नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति करके अन्तमें कहा – प्रभो! आपकी सत्त्व, रज और तम नामक जो तीन शक्तियाँ हैं, उनके राग आदि वेग असह्य हैं।

वेदत्रयी अथवा लोकत्रयी आपका स्वरूप है।

आप शरणागतोंके पालक हैं तथा आपकी शक्ति बहुत बड़ी है – उसकी कहीं कोई सीमा नहीं है; आपको नमस्कार है।

दुर्गापते! जिनकी इन्द्रियाँ दुष्ट हैं – वशमें नहीं हो पातीं, उनके लिये आपकी प्राप्तिका कोई मार्ग सुलभ नहीं है।

आप सदा भक्तोंके उद्धारमें तत्पर रहते हैं, आपका तेज छिपा हुआ है; आपको नमस्कार है।

आपकी मायाशक्तिरूपा जो अहंबुद्धि है, उससे आत्माका स्वरूप ढक गया है; अतएव यह मूढ़बुद्धि जीव अपने स्वरूपको नहीं जान पाता।

आपकी महिमाका पार पाना अत्यन्त कठिन (ही नहीं, सर्वथा असम्भव) है।

हम आप महाप्रभुको मस्तक झुकाते हैं।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार महादेवजीकी स्तुति करके श्रीविष्णु आदि सब देवता उत्तम भक्तिसे मस्तक झुकाये प्रभु शिवजीके आगे चुपचाप खड़े हो गये।

(अध्याय १५)


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