शिव पुराण - रुद्र संहिता - युद्ध खण्ड - 2

शिव पुराण – रुद्र संहिता – युद्ध खण्ड – 2

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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


तारकपुत्रोंके प्रभावसे संतप्त हुए देवोंकी ब्रह्माके पास करुण पुकार, ब्रह्माका उन्हें शिवके पास भेजना, शिवकी आज्ञासे देवोंका विष्णुकी शरणमें जाना और विष्णुका उन दैत्योंको मोहित करके उन्हें आचारभ्रष्ट करना

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! तदनन्तर तारकपुत्रोंके प्रभावसे दग्ध हुए इन्द्र आदि सभी देवता दुःखी हो परस्पर सलाह करके ब्रह्माजीकी शरणमें गये।

वहाँ सम्पूर्ण देवताओंने दीन होकर प्रेमपूर्वक पितामहको प्रणाम किया और अवसर देखकर उनसे अपना दुखड़ा सुनाते हुए कहा।

देवता बोले – धातः! त्रिपुरोंके स्वामी तारकपुत्रोंने तथा मयासुरने समस्त स्वर्गवासियोंको संतप्त कर दिया है।

ब्रह्मन्! इसीलिये हमलोग दुःखी होकर आपकी शरणमें आये हैं।

आप उनके वधका कोई उपाय कीजिये, जिससे हमलोग सुखसे रह सकें।

ब्रह्माजीने कहा – देवगणो! तुम्हें उन दानवोंसे विशेष भय नहीं करना चाहिये।

मैं उनके वधका उपाय बतलाता हूँ।

भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे।

मैंने ही इन दैत्योंको बढ़ाया है, अतः मेरे हाथों इनका वध होना उचित नहीं।

साथ ही त्रिपुरमें इनका पुण्य भी वृद्धिंगत होता रहेगा।

अतः इन्द्रसहित सभी देवता शिवजीसे प्रार्थना करें।

वे सर्वाधीश यदि प्रसन्न हो जायँगे तो वे ही तुमलोगोंका कार्य पूर्ण करेंगे।

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! ब्रह्माजीकी यह वाणी सुनकर इन्द्रसहित सभी देवता दुःखी हो उस स्थानपर गये, जहाँ वृषभध्वज शिव आसीन थे।

तब उन सबने अंजलि बाँधकर देवेश्वर शिवको भक्ति-पूर्वक प्रणाम किया और कंधा झुकाकर लोकोंके कल्याणकर्ता शंकरका स्तवन किया।

मुने! इस प्रकार नाना प्रकारके दिव्य स्तोत्रोंद्वारा त्रिशूलधारी परमेश्वरकी स्तुति करके स्वार्थसाधनमें निपुण इन्द्र आदि देवताओंने दीनभावसे कंधा झुकाये हुए हाथ जोड़कर प्रस्तुत स्वार्थको निवेदन करना आरम्भ किया।

देवताओंने कहा – महादेव! तारकके पुत्र तीनों भाइयोंने मिलकर इन्द्रसहित समस्त देवताओंको परास्त कर दिया है।

भगवन्! उन्होंने त्रिलोकीको तथा मुनीश्वरोंको अपने अधीन कर लिया है और सम्पूर्ण सिद्ध स्थानोंको नष्ट-भ्रष्ट करके सारे जगत् को उत्पीड़ित कर रखा है।

वे दारुण दैत्य समस्त यज्ञभागोंको स्वयं ग्रहण करते हैं।

उन्होंने ऋषिधर्मका निवारण करके अधर्मका विस्तार कर रखा है।

शंकर! निश्चय ही वे तारकपुत्र समस्त प्राणियोंके लिये अवध्य हैं, इसीलिये वे स्वेच्छानुसार सभी कार्य करते रहते हैं।

प्रभो! ये त्रिपुरनिवासी दारुण दैत्य जबतक जगत् का विनाश न कर डालें, उसके पहले ही आप किसी ऐसी नीतिका विधान करें, जिससे इसकी रक्षा हो सके।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! यों भाषण करते हुए उन स्वर्गवासी इन्द्रादि देवोंकी बात सुनकर शिवजी उत्तर देते हुए बोले।

शिवजीने कहा – देवगण! इस समय वे त्रिपुराधीश महान् पुण्य-कार्योंमें लगे हुए हैं और ऐसा नियम है कि जो पुण्यात्मा हो, उसपर विद्वानोंको किसी प्रकार भी प्रहार नहीं करना चाहिये।

मैं देवताओंके सारे महान् कष्टोंको जानता हूँ; फिर भी वे दैत्य बड़े प्रबल हैं, अतः देवता और असुर मिलकर भी उनका वध नहीं कर सकते।

वे तारकपुत्र सब-के-सब पुण्य-सम्पन्न हैं, इसलिये उन सभी त्रिपुरवासियोंका वध दुस्साध्य है।

यद्यपि मैं रणकर्कश हूँ, तथापि जान-बूझकर मैं मित्रद्रोह कैसे कर सकता हूँ; क्योंकि पहले किसी समय ब्रह्माजीने कहा था कि मित्रद्रोहसे बढ़कर दूसरा कोई बड़ा पाप नहीं है।

सत्पुरुषोंने ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा व्रतभंग करनेवालेके लिये प्रायश्चित्तका विधान किया है; परंतु कृतघ्नके उद्धारका कोई उपाय नहीं है।* देवताओ! तुमलोग भी तो धर्मज्ञ हो, अतः धर्मदृष्टिसे विचारकर तुम्हीं बताओ कि जब वे दैत्य मेरे भक्त हैं, तब मैं उन्हें कैसे मार सकता हूँ।

इसलिये अमरो! जबतक वे दैत्य मेरी भक्तिमें तत्पर हैं, तबतक उनका वध असम्भव है।

तथापि तुमलोग विष्णुके पास जाकर उनसे यह कारण निवेदन करो।

तदनन्तर देवगण भगवान् विष्णुके समीप गये और उनके द्वारा ऐसी व्यवस्था की गयी कि जिससे वे असुर शैव – सनातनधर्मसे विमुख होकर सर्वथा अनाचारपरायण हो गये।

वैदिक धर्मका नाश होनेसे वहाँ स्त्रियोंने पातिव्रतधर्म छोड़ दिया, पुरुष इन्द्रियोंके वश हो गये।

यों स्त्री-पुरुष सभी दुराचारी हो गये।

देवाराधन, श्राद्ध, यज्ञ, व्रत, तीर्थ, शिव-विष्णु-सूर्य-गणेश आदिका पूजन, स्नान, दान आदि सभी शुभ आचरण नष्ट हो गये।

तब माया तथा अलक्ष्मी उन पुरोंमें जा पहुँची।

तपसे प्राप्त लक्ष्मी वहाँसे चली गयीं।

इस प्रकार वहाँ अधर्मका विस्तार हो गया।

मुने! तब शिवेच्छासे भाइयोंसहित उस दैत्यराजकी तथा मयकी भी शक्ति कुण्ठित हो गयी।

(अध्याय २ – ५) * ब्रह्मघ्ने च सुरापे च स्तेने भग्नव्रते तथा।

निष्कृतिर्विहिता सद्भिः कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः।।

(शि० पु०, रु० सं०, युद्ध खण्ड ३।५)


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