शिव पुराण – शतरुद्र संहिता – 10

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शिवजीके ‘दुर्वासावतार’ तथा ‘हनुमदवतार’ का वर्णन

नन्दीश्वरजी कहते हैं – महामुने! अब तुम शम्भुके एक दूसरे चरितको, जिसमें शंकरजी धर्मके लिये दुर्वासा होकर प्रकट हुए थे, प्रेमपूर्वक श्रवण करो।

अनसूयाके पति ब्रह्मवेत्ता तपस्वी अत्रिने ब्रह्माजीके निर्देशानुसार पत्नीसहित ऋक्षकुल पर्वतपर जाकर पुत्रकामनासे घोर तप किया।

उनके तपसे प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर तीनों उनके आश्रमपर गये।

उन्होंने कहा कि ‘हम तीनों संसारके ईश्वर हैं।

हमारे अंशसे तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकीमें विख्यात तथा माता-पिताका यश बढ़ानेवाले होंगे।’ यों कहकर वे चले गये।

ब्रह्माजीके अंशसे चन्द्रमा हुए, जो देवताओंके समुद्रमें डाले जानेपर समुद्रसे प्रकट हुए थे।

विष्णुके अंशसे श्रेष्ठ संन्यास-पद्धतिको प्रचलित करनेवाले ‘दत्त’ उत्पन्न हुए और रुद्रके अंशसे मुनिवर दुर्वासाने जन्म लिया।

इन दुर्वासाने महाराज अम्बरीषकी परीक्षा की थी।

जब सुदर्शनचक्रने इनका पीछा किया, तब शिवजीके आदेशसे अम्बरीषके द्वारा प्रार्थना करनेपर चक्र शान्त हुआ।

इन्होंने भगवान् रामकी परीक्षा की।

कालने मुनिका वेष धारण करके श्रीरामके साथ यह शर्त की थी कि ‘मेरे साथ बात करते समय श्रीरामके पास कोई न आये; जो आयेगा उसका निर्वासन कर दिया जायगा।’ दुर्वासाजीने हठ करके लक्ष्मणको भेजा, तब श्रीरामने तुरंत लक्ष्मणका त्याग कर दिया।

इन्होंने भगवान् श्रीकृष्णकी परीक्षा की और उनको श्रीरुक्मिणीसहित रथमें जोता।

इस प्रकार दुर्वासा मुनिने अनेक विचित्र चरित्र किये।

मुने! अब इसके बाद तुम हनुमान् जीका चरित्र श्रवण करो।

हनुमद्रूपसे शिवजीने बड़ी उत्तम लीलाएँ की हैं।

विप्रवर! इसी रूपसे महेश्वरने भगवान् रामका परम हित किया था।

वह सारा चरित्र सब प्रकारके सुखोंका दाता है, उसे तुम प्रेमपूर्वक सुनो।

एक समयकी बात है, जब अत्यन्त अद्भुत लीला करनेवाले गुणशाली भगवान् शम्भुको विष्णुके, मोहिनीरूपका दर्शन प्राप्त हुआ, तब वे कामदेवके बाणोंसे आहत हुएकी तरह क्षुब्ध हो उठे।

उस समय उन परमेश्वरने रामकार्यकी सिद्धिके लिये अपना वीर्यपात किया।

तब सप्तर्षियोंने उस वीर्यको पत्रपुटकमें स्थापित कर लिया; क्योंकि शिवजीने ही रामकार्यके लिये आदरपूर्वक उनके मनमें प्रेरणा की थी।

तत्पश्चात् उन महर्षियोंने शम्भुके उस वीर्यको रामकार्यकी सिद्धिके लिये गौतमकन्या अंजनीमें कानके रास्ते स्थापित कर दिया।

तब समय आनेपर उस गर्भसे शम्भु महान् बल-पराक्रमसम्पन्न वानर-शरीर धारण करके उत्पन्न हुए, उनका नाम हनुमान् रखा गया।

महाबली कपीश्वर हनुमान् जब शिशु ही थे, उसी समय उदय होते हुए सूर्यबिम्बको छोटा-सा फल समझकर तुरंत ही निगल गये।

जब देवताओंने उनकी प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे महाबली सूर्य जानकर उगल दिया।

तब देवर्षियोंने उन्हें शिवका अवतार माना और बहुत-सा वरदान दिया।

तदनन्तर हनुमान् अत्यन्त हर्षित होकर अपनी माताके पास गये और उन्होंने यह सारा वृत्तान्त आदरपूर्वक कह सुनाया।

फिर माताकी आज्ञासे धीर-वीर कपि हनुमान् ने नित्य सूर्यके निकट जाकर उनसे अनायास ही सारी विद्याएँ सीख लीं।

तदनन्तर रुद्रके अंशभूत कपिश्रेष्ठ हनुमान् सूर्यकी आज्ञासे सूर्यांशसे उत्पन्न हुए सुग्रीवके पास चले गये।

इसके लिये उन्हें अपनी मातासे भी अनुज्ञा मिल चुकी थी।

तदनन्तर नन्दीश्वरने भगवान् रामका सम्पूर्ण चरित्र संक्षेपसे वर्णन करके कहा – ‘मुने! इस प्रकार कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने सब तरहसे श्रीरामका कार्य पूरा किया, नाना प्रकारकी लीलाएँ कीं, असुरोंका मानमर्दन किया, भूतलपर रामभक्तिकी स्थापना की और स्वयं भक्ताग्रगण्य होकर सीता-रामको सुख प्रदान किया।

वे रुद्रावतार ऐश्वर्यशाली हनुमान् लक्ष्मणके प्राणदाता, सम्पूर्ण देवताओंके गर्वहारी और भक्तोंका उद्धार करनेवाले हैं।

महावीर हनुमान् सदा रामकार्यमें तत्पर रहनेवाले, लोकमें ‘रामदूत’ नामसे विख्यात, दैत्योंके संहारक और भक्तवत्सल हैं।

तात! इस प्रकार मैंने हनुमान् जीका श्रेष्ठ चरित – जो धन, कीर्ति और आयुका वर्धक तथा सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंका दाता है – तुमसे वर्णन कर दिया।

जो मनुष्य इस चरितको भक्तिपूर्वक सुनता है अथवा समाहित चित्तसे दूसरेको सुनाता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर अन्तमें परम मोक्षको प्राप्त कर लेता है।

(अध्याय १९-२०)


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