<< शिव पुराण – कोटिरुद्र संहिता – 24
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श्रीकृष्ण के तप की कथा
शिवकी महिमा
यो धत्ते भुवनानि सप्त गुणवान् स्रष्टा रजःसंश्रयः संहर्त्ता
तमसान्वितो गुणवतीं मायामतीत्य स्थितः।
सत्यानन्दमनन्तबोधममलं ब्रह्मादिसंज्ञास्पदं नित्यं
सत्त्वसमन्वयादधिगतं पूर्णं शिवं धीमहि।।
- ‘जो रजोगुणका आश्रय ले संसारकी सृष्टि करते हैं,
- सत्त्वगुणसे सम्पन्न हो सातों भुवनोंका धारण-पोषण करते हैं,
- तमोगुणसे युक्त हो सबका संहार करते हैं
- तथा त्रिगुणमयी मायाको लाँघकर अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थित रहते हैं,
- उन सत्यानन्दस्वरूप, अनन्त बोधमय, निर्मल एवं पूर्ण ब्रह्म शिवका हम ध्यान करते हैं।
वे ही सृष्टिकालमें ब्रह्मा, पालनके समय विष्णु और संहारकालमें रुद्र नाम धारण करते हैं तथा सदैव सात्त्विक-भावको अपनानेसे ही प्राप्त होते हैं।
ऋषियों ने साम्ब सदाशिव की महिमा के बारे में पूछा
ऋषि बोले –
महाज्ञानी व्यासशिष्य सूतजी! आपको नमस्कार है।
आपने कोटिरुद्र नामक चौथी संहिता हमें सुना दी।
अब उमासंहिताके अन्तर्गत नाना प्रकारके उपाख्यानोंसे युक्त जो परमात्मा साम्ब सदाशिवका चरित्र है, उसका वर्णन कीजिये।
सूतजीने कहा –
शौनक आदि महर्षियो! भगवान् शंकरका मंगलमय चरित्र परम दिव्य एवं भोग और मोक्षको देनेवाला है।
तुमलोग प्रेमसे इसका श्रवण करो।
श्रीकृष्ण के तप की कथा
पूर्वकालमें मुनिवर व्यासने सनत्कुमारके सामने ऐसे ही पवित्र प्रश्नको उपस्थित किया था और इसके उत्तरमें उन्होंने भगवान् शिवके उत्तम चरित्रका गान किया था।
उस समय
- पुत्रकी प्राप्तिके निमित्त श्रीकृष्णके हिमवान् पर्वतपर जाकर महर्षि उपमन्युसे मिलने,
- उनकी बतायी हुई पद्धतिके अनुसार भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये तप करने,
- उनके तपसे प्रसन्न होकर पार्वती, कार्तिकेय तथा गणेशसहित शिवके प्रकट होने तथा
- श्रीकृष्णके द्वारा उनकी स्तुतिपूर्वक वरदान माँगनेकी कथा सुनाकर सनत्कुमारजीने कहा –
- श्रीकृष्णका वचन सुनकर भगवान् भव उनसे बोले – ‘वासुदेव! तुमने जो कुछ मनोरथ किया है, वह सब पूर्ण होगा।’
इतना कहकर त्रिशूलधारी भगवान् शिव फिर बोले – “यादवेन्द्र! तुम्हें साम्ब नामसे प्रसिद्ध एक महापराक्रमी बलवान् पुत्र प्राप्त होगा।
एक समय मुनियोंने भयानक संवर्तक (प्रलयंकर) सूर्यको शाप दिया था कि ‘तुम मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होओगे’ अतः वे संवर्तक सूर्य ही तुम्हारे पुत्र होंगे।
इसके सिवा जो-जो वस्तु तुम्हें अभीष्ट है, वह सब तुम प्राप्त करो।”
सनत्कुमारजी कहते हैं – इस प्रकार परमेश्वर शिवसे सम्पूर्ण वरोंको प्राप्त करके श्रीकृष्णने विविध प्रकारकी बहुत-सी स्तुतियोंद्वारा उन्हें पूर्णतया संतुष्ट किया।
भगवान् श्रीकृष्णके तपसे संतुष्ट होकर शिव और पार्वतीका उन्हें वर देना
तदनन्तर भक्तवत्सला गिरिराजकुमारी शिवाने प्रसन्न हो उन तपस्वी शिवभक्त महात्मा वासुदेवसे कहा।
पार्वती बोलीं – परम बुद्धिमान् वसुदेव-नन्दन श्रीकृष्ण! मैं तुमसे बहुत संतुष्ट हूँ।
अनघ! तुम मुझसे भी उन मनोवांछित वरोंको ग्रहण करो, जो भूतलपर दुर्लभ हैं।
श्रीकृष्णने वर में क्या माँगा?
श्रीकृष्णने कहा – देवि! यदि आप मेरे इस सत्य तपसे संतुष्ट हैं और मुझे वर दे रही हैं तो मैं यह चाहता हूँ कि ब्राह्मणोंके प्रति कभी मेरे मनमें द्वेष न हो, मैं सदा द्विजोंका पूजन करता रहूँ।
मेरे माता-पिता सदा मुझसे संतुष्ट रहें।
मैं जहाँ कहीं भी जाऊँ, समस्त प्राणियोंके प्रति मेरे हृदयमें अनुकूल भाव रहे।
आपके दर्शनके प्रभावसे मेरी संतति उत्तम हो।
मैं सैकड़ों यज्ञ करके इन्द्र आदि देवताओंको तृप्त करूँ।
सहस्रों साधु-संन्यासियों और अतिथियोंको सदा अपने घरपर श्रद्धासे पवित्र अन्नका भोजन कराऊँ।
भाई-बन्धुओंके साथ नित्य मेरा प्रेम बना रहे तथा मैं सदा संतुष्ट रहूँ।
सनत्कुमारजी कहते हैं – श्रीकृष्णका वह वचन सुनकर सम्पूर्ण अभीष्टोंको देनेवाली सनातनी देवी पार्वती विस्मित हो उनसे बोलीं – ‘वासुदेव! ऐसा ही होगा।
तुम्हारा कल्याण हो।’ इस प्रकार श्रीकृष्णपर उत्तम कृपा करके उन्हें उन वरोंको देकर पार्वतीदेवी तथा परमेश्वर शिव दोनों वहीं अन्तर्धान हो गये।
तदनन्तर केशिहन्ता श्रीकृष्णने मुनिवर उपमन्युको प्रणाम करके उनसे वर-प्राप्तिका सारा समाचार बताया।
तब उन मुनिने कहा – ‘जनार्दन! संसारमें भगवान् शिवके सिवा दूसरा कौन महादानी ईश्वर है तथा क्रोधके समय दूसरा कौन अत्यन्त दुस्सह हो उठता है।
महायशस्वी गोविन्द! दान, तप, शौर्य तथा स्थिरतामें शिवसे बढ़कर कौन है।
अतः तुम शम्भुके दिव्य ऐश्वर्यका सदा श्रवण करते रहो।’
* तदनन्तर उपमन्युके द्वारा शिवकी महिमा सुननेके बाद उन मुनीश्वरको नमस्कार करके वसुदेवनन्दन केशव मन-ही-मन शम्भुका स्मरण करते हुए द्वारका-पुरीको चले गये।
(अध्याय १ – ३) * महर्षि उपमन्युके द्वारा श्रीकृष्णके प्रति शिवतत्त्वके उपदेश तथा उपमन्युकी कथा वायवीयसंहितामें विस्तारसे कही जायगी।
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