<< शिव पुराण – उमा संहिता – 14
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देवीके द्वारा सेना और सेनापतियोंसहित निशुम्भ एवं शुम्भका संहार
ऋषि कहते हैं – राजन्! प्रशंसनीय पराक्रमशाली महान् असुर शुम्भने इन श्रेष्ठ दैत्योंका मारा जाना सुनकर अपने उन दुर्जय गणोंको युद्धके लिये जानेकी आज्ञा दी, जो संग्रामका नाम सुनते ही हर्षसे खिल उठते थे।
उसने कहा – ‘आज मेरी आज्ञासे कालक, कालकेय, मौर्य, दौर्हृद तथा अन्य असुरगण बड़ी भारी सेनाके साथ संगठित हो विजयकी आशा रखकर शीघ्र युद्धके लिये प्रस्थान करें।’ निशुम्भ और शुम्भ दोनों भाई उन दैत्योंको पूर्वोक्त आदेश देकर रथपर आरूढ़ हो स्वयं भी नगरसे बाहर निकले।
उन महाबली वीरोंकी आज्ञासे उनकी सेनाएँ उसी तरह युद्धके लिये आगे बढ़ीं, मानो मरणोन्मुख पतंग आगमें कूदनेके लिये उठ खड़े हुए हों।
उस समय असुरराजने युद्धस्थलमें मृदंग, मर्दल, भेरी, डिण्डिम, झाँझ और ढोल आदि बाजे बजवाये।
उन जुझाऊ बाजोंकी आवाज सुनकर युद्धप्रेमी वीर हर्ष एवं उत्साहसे भर गये; परंतु जिन्हें अपने प्राण ही अधिक प्यारे थे, वे उस रणभूमिसे भाग चले।
युद्धसम्बन्धी वस्त्रों तथा कवच आदिसे आच्छादित अंगवाले वे योद्धा विजयकी अभिलाषासे अस्त्र-शस्त्र धारण किये युद्धस्थलमें आ पहुँचे।
कितने ही सैनिक हाथियोंपर सवार थे, बहुत-से दैत्य घोड़ोंकी पीठपर बैठे थे और अन्य असुर रथोंपर चढ़कर जा रहे थे।
उस समय उन्हें अपने-परायेकी पहचान नहीं होती थी।
उन्होंने असुरराजके साथ समरांगणमें पहुँचकर सब ओरसे युद्ध आरम्भ कर दिया।
बारंबार शतघ्नी (तोप)-की आवाज होने लगी, जिसे सुनकर देवता काँप उठे।
धूल और धूएँसे आकाशमें महान् अन्धकार छा गया।
सूर्यका रथ नहीं दिखायी देता था।
अत्यन्त अभिमानी करोड़ों पैदल योद्धा विजयकी अभिलाषा लिये युद्धस्थलमें आकर डट गये थे।
घुड़सवार, हाथीसवार तथा अन्य रथारूढ़ असुर भी बड़ी प्रसन्नताके साथ करोड़ोंकी संख्यामें वहाँ आये थे।
उस महासमरमें काले पर्वतोंके समान विशाल मदमत्त गजराज जोर-जोरसे चिग्घाड़ रहे थे, छोटे-छोटे शैल-शिखरोंके समान ऊँट भी अपने गलेसे गल् गल् ध्वनिका विस्तार करने लगे।
अच्छी भूमिमें उत्पन्न हुए घोड़े गलेमें विशाल कण्ठहार धारण किये जोर-जोरसे हिनहिना रहे थे।
वे अनेक प्रकारकी चालें जानते थे और हाथियोंके मस्तकपर पैर रखते हुए आकाशमार्गसे पक्षियोंकी भाँति उड़ जाते थे।
शत्रुकी ऐसी सेनाको आक्रमण करती देख जगदम्बाने अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ायी।
साथ ही शत्रुओंको हतोत्साह करनेवाले घंटेको भी बजाया।
यह देख सिंह भी अपनी गर्दन और मस्तकके केशोंको कँपाता हुआ जोर-जोरसे गर्जना करने लगा।
उस समय हिमालय पर्वतपर खड़ी हुई रमणीय आभूषणों और अस्त्रोंसे सुशोभित शिवा देवीकी ओर देखकर निशुम्भ विलासिनी रमणियोंके मनोभावको समझनेमें निपुण पुरुषकी भाँति सरस वाणीमें बोला – ‘महेश्वरि! तुम-जैसी सुन्दरियोंके रमणीय शरीरपर मालतीके फूलका एक दल भी डाल दिया जाय तो वह व्यथा उत्पन्न कर देता है।
ऐसे मनोहर शरीरसे तुम विकराल युद्धका विस्तार कैसे कर रही हो?’ यह बात कहकर वह महान् असुर चुप हो गया।
तब चण्डिका देवीने कहा – ‘मूढ़ असुर! व्यर्थकी बातें क्यों बकता है? युद्ध कर, अन्यथा पातालको चला जा।’ यह सुनकर वह महारथी वीर अत्यन्त रुष्ट हो समरभूमिमें बाणोंकी अद्भुत वृष्टि करने लगा, मानो बादल जलकी धारा बरसा रहे हों।
उस समय उस रणक्षेत्रमें वर्षा-ऋतुका आगमन हुआ-सा जान पड़ता था।
मदसे उद्धत हुआ वह असुर तीखे बाण, शूल, फरसे, भिन्दिपाल, परिघ, धनुष, भुशुण्डि, प्रास, क्षुरप्र तथा बड़ी-बड़ी तलवारोंसे युद्ध करने लगा।
काले पर्वतोंके समान बड़े-बड़े गजराज कुम्भस्थल विदीर्ण हो जानेके कारण समरांगणमें चक्कर काटने लगे।
उनकी पीठपर फहराती हुई शुम्भ-निशुम्भकी पताकाएँ, जो उड़ती हुई बलाकाओं (बगुलों)-की पंक्तियोंके समान श्वेत दिखायी देती थीं, अपने स्थानसे खण्डित होकर नीचे गिरने लगीं।
क्षत-विक्षत शरीरवाले दैत्य पृथ्वीपर गिरकर मछलियोंके समान तड़प रहे थे।
गर्दन कट जानेके कारण घोड़ोंके समूह बड़े भयंकर दिखायी देते थे।
कालिकाने कितने ही दैत्योंको मौतके घाट उतार दिया तथा देवीके वाहन सिंहने अन्य बहुत-से असुरोंको अपना आहार बना लिया।
उस समय दैत्योंके मारे जानेसे उस रणभूमिमें रक्तकी धारा बहानेवाली कितनी ही नदियाँ बह चलीं।
सैनिकोंके केश पानीमें सेवारकी भाँति दिखायी देते थे और उनकी चादरें सफेद फेनका भ्रम उत्पन्न करती थीं।
इस तरह घोर युद्ध होने तथा राक्षसोंका महान् संहार हो जानेके पश्चात् देवी अम्बिकाने विषमें बुझे हुए तीखे बाणोंद्वारा निशुम्भको मारकर धराशायी कर दिया।
अपने असीम शक्तिशाली छोटे भाईके मारे जानेपर शुम्भ रोषसे भर गया और रथपर बैठकर आठ भुजाओंसे युक्त हो महेश्वरप्रिया अम्बिकाके पास गया।
उसने जोर-जोरसे शंख बजाया और शत्रुओंका दमन करनेवाले धनुषकी दुस्सह टंकारध्वनि की तथा देवीका सिंह भी अपने अयालोंको हिलाता हुआ दहाड़ने लगा।
इन तीन प्रकारकी ध्वनियोंसे आकाशमण्डल गूँज उठा।
तदनन्तर जगदम्बाने अट्टहास किया, जिससे समस्त असुर संत्रस्त हो उठे।
जब देवीने शुम्भसे कहा कि ‘तुम युद्धमें स्थिरतापूर्वक खड़े रहो’ तब देवता बोल उठे – ‘जय हो, जय हो जगदम्बाकी।’ इस समय दैत्यराज शुम्भने बड़ी भारी शक्ति छोड़ी, जिसकी शिखासे आगकी ज्वाला निकल रही थी।
परंतु देवीने एक उल्काके द्वारा उसे मार गिराया।
शुम्भके चलाये हुए बाणोंके देवीने और देवीके चलाये हुए बाणोंके शुम्भने सहस्रों टुकड़े कर दिये।
तत्पश्चात् चण्डिकाने त्रिशूल उठाकर उस महान् असुरपर आघात किया।
त्रिशूलकी चोटसे मूर्च्छित हो वह इन्द्रके द्वारा पंख काट दिये जानेपर गिरनेवाले पर्वतकी भाँति आकाश, पृथ्वी तथा समुद्रको कम्पित करता हुआ धरतीपर गिर पड़ा।
तदनन्तर शूलके आघातसे होनेवाली व्यथाको सहकर उस महाबली असुरने दस हजार बाँहें धारण कर लीं और देवताओंका भी नाश करनेमें समर्थ चक्रोंद्वारा सिंहसहित महेश्वरी शिवापर आघात करना आरम्भ किया।
उसके चलाये हुए चक्रोंको खेल-खेलमें ही विदीर्ण करके देवीने त्रिशूल उठाया और उस असुरपर घातक प्रहार किया।
शिवाके लोकपावन पाणिपंकजसे मृत्युको प्राप्त होकर वे दोनों असुर परम पदके भागी हुए।
उस महापराक्रमी निशुम्भ और भयानक बलशाली शुम्भके मारे जानेपर समस्त दैत्य पातालमें घुस गये, अन्य बहुत-से असुरोंको काली और सिंह आदिने खा लिया तथा शेष दैत्य भयसे व्याकुल हो दसों दिशाओंमें भाग गये।
नदियोंका जल स्वच्छ हो गया।
वे ठीक मार्गसे बहने लगीं।
मन्द-मन्द वायु बहने लगी, जिसका स्पर्श सुखद प्रतीत होता था; आकाश निर्मल हो गया।
देवताओं और ब्रह्मर्षियोंने फिर यज्ञ-यागादि आरम्भ कर दिये।
इन्द्र आदि सब देवता सुखी हो गये।
प्रभो! दैत्यराजके वध-प्रसंगसे युक्त इस परम पवित्र उमाचरित्रका जो श्रद्धापूर्वक बारंबार श्रवण या पाठ करता है, वह इस लोकमें देव-दुर्लभ भोगोंका उपभोग करके परलोकमें महामायाके प्रसादसे उमाधामको जाता है।
राजन्! इस प्रकार शुम्भासुरका संहार करनेवाली देवी सरस्वतीके चरित्रका वर्णन किया गया, जो साक्षात् उमाके अंशसे प्रकट हुई थीं।
(अध्याय ४८)
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