शिव पुराण – उमा संहिता – 16

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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


देवताओंका गर्व दूर करनेके लिये तेजःपुंजरूपिणी उमाका प्रादुर्भाव

मुनियोंने कहा – सम्पूर्ण पदार्थोंके पूर्ण ज्ञाता सूतजी! भुवनेश्वरी उमाके, जिनसे सरस्वती प्रकट हुई थीं, अवतारका पुनः वर्णन कीजिये।

वे देवी परब्रह्म, मूलप्रकृति, ईश्वरी, निराकार होती हुई भी साकार तथा नित्यानन्दमयी सती कही जाती हैं।

सूतजीने कहा – तपस्वी मुनियो! आपलोग देवीके उत्तम एवं महान् चरित्रको प्रेमपूर्वक सुनें, जिसके जाननेमात्रसे मनुष्य परम गतिको प्राप्त होता है।

एक समय देवताओं और दानवोंमें परस्पर युद्ध हुआ।

उसमें महामायाके प्रभावसे देवताओंकी जीत हो गयी।

इससे देवताओंको अपनी शूरवीरतापर बड़ा गर्व हुआ।

वे आत्म-प्रशंसा करते हुए इस बातका प्रचार करने लगे कि ‘हमलोग धन्य हैं, धन्यवादके योग्य हैं।

असुर हमारा क्या कर लेंगे।

वे हमलोगोंका अत्यन्त दुस्सह प्रभाव देखकर भयभीत हो ‘भाग चलो! भाग चलो!’ कहते हुए पाताललोकमें घुस गये।

हमारा बल अद्भुत है! हममें आश्चर्यजनक तेज है।

हमारा बल और तेज दैत्यकुलका विनाश करनेमें समर्थ है! अहो! देवताओंका कैसा सौभाग्य है।’ इस प्रकार वे जहाँ-तहाँ डींग हाँकने लगे।

तदनन्तर उसी समय उनके समक्ष तेजका एक महान् पुंज प्रकट हुआ, जो पहले कभी देखनेमें नहीं आया था।

उसे देखकर सब देवता विस्मयसे भर गये।

वे रुँधे हुए गलेसे परस्पर पूछने लगे – ‘यह क्या है? यह क्या है?’ उन्हें यह पता नहीं था कि यह श्यामा (भगवती उमा)-का उत्कृष्ट प्रभाव है, जो देवताओंका अभिमान चूर्ण करनेवाला है।

उस समय देवराज इन्द्रने देवताओंको आज्ञा दी – ‘तुमलोग जाओ और यथार्थ-रूपसे परीक्षा करो कि यह कौन है।’ देवेन्द्रके भेजनेसे वायुदेव उस तेजःपुंजके निकट गये।

तब उस तेजोराशिने उन्हें सम्बोधित करके पूछा – ‘अजी! तुम कौन हो?’ उस महान् तेजके इस प्रकार पूछनेपर वायुदेवता अभिमानपूर्वक बोले – ‘मैं वायु हूँ, सम्पूर्ण जगत् का प्राण हूँ; मुझ सर्वाधार परमेश्वरमें ही यह स्थावर-जंगमरूप सारा जगत् ओतप्रोत है।

मैं ही समस्त विश्वका संचालन करता हूँ।’ तब उस महातेजने कहा – ‘वायो! यदि तुम जगत् के संचालनमें समर्थ हो तो यह तृण रखा हुआ है।

इसे अपनी इच्छाके अनुसार चलाओ तो सही।’ तब वायुदेवताने सभी उपाय करके अपनी सारी शक्ति लगा दी।

परंतु वह तिनका अपने स्थानसे तिलभर भी न हटा।

इससे वायुदेव लज्जित हो गये।

वे चुप हो इन्द्रकी सभामें लौट गये और अपनी पराजयके साथ वहाँका सारा वृत्तान्त उन्होंने सुनाया।

वे बोले – ‘देवेन्द्र! हम सब लोग झूठे ही अपनेमें सर्वेश्वर होनेका अभिमान रखते हैं; क्योंकि किसी छोटी-सी वस्तुका भी हम कुछ नहीं कर सकते।’ तब इन्द्रने बारी-बारीसे समस्त देवताओंको भेजा।

जब वे उसे जाननेमें समर्थ न हो सके, तब इन्द्र स्वयं गये।

इन्द्रको आते देख वह अत्यन्त दुस्सह तेज तत्काल अदृश्य हो गया।

इससे इन्द्र बड़े विस्मित हुए और मन-ही-मन बोले – ‘जिसका ऐसा चरित्र है, उसी सर्वेश्वरकी मैं शरण लेता हूँ।’ सहस्र-नेत्रधारी इन्द्र बारंबार इसी भावका चिन्तन करने लगे।

इसी समय निश्छल करुणामय शरीर धारण करनेवाली सच्चिदानन्द-स्वरूपिणी शिवप्रिया उमा उन देवताओंपर दया करने और उनका गर्व हरनेके लिये चैत्रशुक्ला नवमीको दोपहरमें वहाँ प्रकट हुईं।

वे उस तेजःपुंजके बीचमें विराज रही थीं, अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रकाशित कर रही थीं और समस्त देवताओंको सुस्पष्टरूपसे यह जता रही थीं कि ‘मैं साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ही हूँ।’ वे चार हाथोंमें क्रमशः वर, पाश, अंकुश और अभय धारण किये थीं।

श्रुतियाँ साकार होकर उनकी सेवा करती थीं।

वे बड़ी रमणीय दीखती थीं तथा अपने नूतन यौवनपर उन्हें गर्व था।

वे लाल रंगकी साड़ी पहने हुए थीं।

लाल फूलोंकी माला तथा लाल चन्दनसे उनका शृंगार किया गया था।

वे कोटि-कोटि कन्दर्पोंके समान मनोहारिणी तथा करोड़ों चन्द्रमाओंके समान चटकीली चाँदनीसे सुशोभित थीं।

सबकी अन्तर्यामिणी, समस्त भूतोंकी साक्षिणी तथा परब्रह्मस्वरूपिणी उन महामायाने इस प्रकार कहा।

उमा बोलीं – मैं ही परब्रह्म, परम ज्योति, प्रणवरूपिणी तथा युगलरूपधारिणी हूँ।

मैं ही सब कुछ हूँ।

मुझसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है।

मैं निराकार होकर भी साकार हूँ, सर्वतत्त्वस्वरूपिणी हूँ।

मेरे गुण अतर्क्य हैं।

मैं नित्यस्वरूपा तथा कार्यकारणरूपिणी हूँ।

मैं ही कभी प्राणवल्लभाका आकार धारण करती हूँ और कभी प्राणवल्लभ पुरुषका।

कभी स्त्री और पुरुष दोनों रूपोंमें एक साथ प्रकट होती हूँ (यही मेरा अर्धनारीश्वररूप है)।

मैं सर्वरूपिणी ईश्वरी हूँ, मैं ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हूँ।

मैं ही जगत्पालक विष्णु हूँ तथा मैं ही संहारकर्ता रुद्र हूँ।

सम्पूर्ण विश्वको मोहमें डालनेवाली महामाया मैं ही हूँ।

काली, लक्ष्मी और सरस्वती आदि सम्पूर्ण शक्तियाँ तथा ये सकल कलाएँ मेरे अंशसे ही प्रकट हुई हैं।

मेरे ही प्रभावसे तुमलोगोंने सम्पूर्ण दैत्योंपर विजय पायी है।

मुझ सर्वविजयिनीको न जानकर तुमलोग व्यर्थ ही अपनेको सर्वेश्वर मान रहे हो।

जैसे इन्द्रजाल करनेवाला सूत्रधार कठपुतलीको नचाता है, उसी प्रकार मैं ईश्वरी ही समस्त प्राणियोंको नचाती हूँ।

मेरे भयसे हवा चलती है, मेरे भयसे ही अग्निदेव सबको जलाते हैं तथा मेरा भय मानकर ही लोकपालगण निरन्तर अपने-अपने कर्मोंमें लगे रहते हैं।

मैं सर्वथा स्वतन्त्र हूँ और अपनी लीलासे ही कभी देवसमुदायको विजयी बनाती हूँ तथा कभी दैत्योंको।

मायासे परे जिस अविनाशी परात्पर धामका श्रुतियाँ वर्णन करती हैं, वह मेरा ही रूप है।

सगुण और निर्गुण – ये मेरे दो प्रकारके रूप माने गये हैं।

इनमेंसे प्रथम तो मायायुक्त है और दूसरा मायारहित।

देवताओ! ऐसा जानकर गर्व छोड़ो और मुझ सनातनी प्रकृतिकी प्रेमपूर्वक आराधना करो।* देवीका यह करुणायुक्त वचन सुन देवता भक्तिभावसे मस्तक झुकाकर उन परमेश्वरीकी स्तुति करने लगे – ‘जगदीश्वरि! क्षमा करो।

परमेश्वरि! प्रसन्न होओ।

मातः! ऐसी कृपा करो, जिससे फिर कभी हमें गर्व न हो।’ तबसे सब देवता गर्व छोड़ एकाग्रचित्त हो पूर्ववत् विधिपूर्वक उमादेवीकी आराधना करने लगे।

ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने तुमसे उमाके प्रादुर्भावका वर्णन किया है, जिसके श्रवणमात्रसे परमपदकी प्राप्ति होती है।

(अध्याय ४९) * उमोवाच – परं बह्म परं ज्योतिः प्रणवद्वन्द्वरूपिणी।

अहमेवास्मि सकलं मदन्यो नास्ति कश्चन।।

निराकारापि साकारा सर्वतत्त्वस्वरूपिणी।

अप्रतर्क्यगुणा नित्या कार्यकारणरूपिणी।।

कदाचिद्दयिताकारा कदाचित्पुरूषाकृतिः।

कदाचिदुभयाकारा सर्वाकाराहमीश्वरी।।

विरञ्चिः सृष्टिकर्ताहं जगन्माताहमच्युतः।

रुद्रः संहारकर्ताहं सर्वविश्वविमोहिनी।।

कालिकाकमलावाणीमुखाः सर्वा हि शक्तयः।

मदंशादेव संजातास्तथेमाः सकलाः कलाः।।

मत्प्रभावाज्जिताः सर्वे युष्माभिर्दितिनन्दनाः।

तामविज्ञाय मां यूयं वृथा सर्वेशमानिनः।।

यथा दारुमयीं योषां नर्तयत्यैन्द्रजालिकः।

तथैव सर्वभूतानि नर्तयाम्यहमीश्वरी।।

मद्भयाद् वाति पवनः सर्वं दहति हव्यभुक्।

लोकपालाः प्रकुर्वन्ति स्वस्वकर्माण्यनारतम्।।

कदाचिद्देववर्गाणां कदाचिद्दितिजन्मनाम्।

करोमि विजयं सम्यक् स्वतन्त्रा निजलीलया।।

अविनाशिपरं धाम मायातीतं परात्परम्।

श्रुतयो वर्णयन्ते यत्तद्रूपं तु ममैव हि।।

सगुणं निर्गुणं चेति मद्रूपं द्विविध मतम्।

मायाशवलितं चैकं द्वितीयं तदनाश्रितम्।।

एवं विज्ञाय मां देवाः स्वं स्वं गर्वं विहाय च।

भजत प्रणयोपेताः प्रकृतिं मां सनातनीम्।।

(शि० पु० उ० सं० ४९।२७ – ३८)


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