<< शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 14
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त्रिविध दीक्षाका निरूपण, शक्तिपातकी आवश्यकता तथा उसके लक्षणोंका वर्णन, गुरुका महत्त्व, ज्ञानी गुरुसे ही मोक्षकी प्राप्ति तथा गुरुके द्वारा शिष्यकी परीक्षा
श्रीकृष्ण बोले – भगवन्! आपने मन्त्रका माहात्म्य तथा उसके प्रयोगका विधान बताया, जो साक्षात् वेदके तुल्य है।
अब मैं उत्तम शिव-संस्कारकी विधि सुनना चाहता हूँ, जिसे मन्त्र-ग्रहणके प्रकरणमें आपने कुछ सूचित किया था।
वह बात मुझे भूली नहीं है।
उपमन्युने कहा – अच्छा, मैं तुम्हें शिवद्वारा कथित परम पवित्र संस्कारका विधान बता रहा हूँ, जो समस्त पापोंका शोधन करनेवाला है।
मनुष्य जिसके प्रभावसे पूजा आदिमें उत्तम अधिकार प्राप्त कर लेता है, उस षडध्वशोधन कर्मको संस्कार कहते हैं।
संस्कार अर्थात् शुद्धि करनेसे ही उसका नाम संस्कार है।
यह विज्ञान देता है और पाशबन्धनको क्षीण करता है।
इसलिये इस संस्कारको ही दीक्षा भी कहते हैं।
शिव-शास्त्रमें परमात्मा शिवने ‘शाम्भवी’, ‘शाक्ती’ और ‘मान्त्री’ तीन प्रकारकी दीक्षाका उपदेश किया है।
गुरुके दृष्टिपातमात्रसे, स्पर्शसे तथा सम्भाषणसे भी जीवको जो तत्काल पाशोंका नाश करनेवाली संज्ञा सम्यक् बुद्धि प्राप्त होती है, वह शाम्भवी दीक्षा कहलाती है।
उस दीक्षाके भी दो भेद हैं – तीव्रा और तीव्रतरा।
पाशोंके क्षीण होनेमें जो शीघ्रता या मन्दता होती है, उसीके भेदसे ये दो भेद हुए हैं।
जिस दीक्षासे तत्काल सिद्धि या शान्ति प्राप्त होती है, वही तीव्रतरा मानी गयी है।
जीवित पुरुषके पापका अत्यन्त शोधन करनेवाली जो दीक्षा है, उसे तीव्रा कहा गया है।
गुरु योगमार्गसे शिष्यके शरीरमें प्रवेश करके ज्ञानदृष्टिसे जो ज्ञानवती दीक्षा देते हैं, वह शाक्ती कही गयी है।
क्रियावती दीक्षाको मान्त्री दीक्षा कहते हैं।
इसमें पहले होमकुण्ड और यज्ञमण्डपका निर्माण किया जाता है।
फिर गुरु बाहरसे मन्द या मन्दतर उद्देश्यको लेकर शिष्यका संस्कार करते हैं।
शक्तिपातके अनुसार शिष्य गुरुके अनुग्रहका भाजन होता है।
शैव-धर्मका अनुसरण शक्तिपात-मूलक है; अतः संक्षेपसे उसके विषयमें निवेदन किया जाता है।
जिस शिष्यमें गुरुकी शक्तिका पात नहीं हुआ, उसमें शुद्धि नहीं आती तथा उसमें न तो विद्या, न शिवाचार, न मुक्ति और न सिद्धियाँ ही होती हैं; अतः प्रचुर शक्तिपातके लक्षणोंको देखकर गुरु ज्ञान अथवा क्रियाके द्वारा शिष्यका शोधन करे।
जो मोहवश इसके विपरीत आचरण करता है, वह दुर्बुद्धि नष्ट हो जाता है; अतः गुरु सब प्रकारसे शिष्यका परीक्षण करे।
उत्कृष्ट बोध और आनन्दकी प्राप्ति ही शक्तिपातका लक्षण है; क्योंकि वह परमाशक्ति प्रबोधानन्दरूपिणी ही है।
आनन्द और बोधका लक्षण है अन्तःकरणमें (सात्त्विक) विकार।
जब अन्तःकरण द्रवित होता है, तब बाह्य शरीरमें कम्प, रोमांच, स्वरविकार,१ नेत्रविकार२ और अंगविकार३ प्रकट होते हैं।
शिष्य भी शिवपूजन आदिमें गुरुका सम्पर्क प्राप्त करके अथवा उनके साथ रह करके उनमें प्रकट होनेवाले इन लक्षणोंसे गुरुकी परीक्षा करे।
शिष्य गुरुका शिक्षणीय होता है और उसका गुरुके प्रति गौरव होता है।
इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके शिष्य ऐसा आचरण करे, जो गुरुके गौरवके अनुरूप हो।
जो गुरु है, वह शिव कहा गया है और जो शिव है, वह गुरु माना गया है।
विद्याके आकारमें शिव ही गुरु बनकर विराजमान हैं।
जैसे शिव हैं, वैसी विद्या है।
जैसी विद्या है, वैसे गुरु हैं।
शिव, विद्या और गुरुके पूजनसे समान फल मिलता है।
शिव सर्वदेवात्मक हैं और गुरु सर्वमन्त्रमय।
अतः सम्पूर्ण यत्नसे गुरुकी आज्ञाको शिरोधार्य करना चाहिये।
यदि मनुष्य अपना कल्याण चाहनेवाला और बुद्धिमान् है तो वह गुरुके प्रति मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी मिथ्याचार – कपटपूर्ण बर्ताव न करे।
गुरु आज्ञा दें या न दें, शिष्य सदा उनका हित और प्रिय करे।
उनके सामने और पीठ-पीछे भी उनका कार्य करता रहे।
ऐसे आचारसे युक्त गुरुभक्त और सदा मनमें उत्साह रखनेवाला जो गुरुका प्रिय कार्य करनेवाला शिष्य है, वही शैव धर्मोंके उपदेशका अधिकारी है।
यदि गुरु गुणवान्, विद्वान्, परमानन्दका प्रकाशक, तत्त्ववेत्ता और शिवभक्त है तो वही मुक्ति देनेवाला है, दूसरा नहीं।
ज्ञान उत्पन्न करनेवाला जो परमानन्दजनित तत्त्व है, उसे जिसने जान लिया है, वही आनन्दका साक्षात्कार करा सकता है।
ज्ञानरहित नाममात्रका गुरु ऐसा नहीं कर सकता।
नौकाएँ एक-दूसरीको पार लगा सकती हैं, किंतु क्या कोई शिला दूसरी शिलाको तार सकती है? नाममात्रके गुरुसे नाममात्रकी ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है।
जिन्हें तत्त्वका ज्ञान है, वे ही स्वयं मुक्त होकर दूसरोंको भी मुक्त करते हैं।
तत्त्वहीनको कैसे बोध होगा और बोधके बिना कैसे ‘आत्मा’ का अनुभव होगा?* जो आत्मानुभवसे शून्य है, वह ‘पशु’ कहलाता है।
पशुकी प्रेरणासे कोई पशुत्वको नहीं लाँघ सकता; अतः तत्त्वज्ञ पुरुष ही ‘मुक्त’ और ‘मोचक’ हो सकता है, अज्ञ नहीं।
समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त, सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञाता तथा सब प्रकारके उपाय-विधानका जानकार होनेपर भी जो तत्त्वज्ञानसे हीन है, उसका जीवन निष्फल है।
जिस पुरुषकी अनुभवपर्यन्त बुद्धि तत्त्वके अनुसंधानमें प्रवृत्त होती है, उसके दर्शन, स्पर्श आदिसे परमानन्दकी प्राप्ति होती है।
अतः जिसके सम्पर्कसे ही उत्कृष्ट बोधस्वरूप आनन्दकी प्राप्ति सम्भव हो, बुद्धिमान् पुरुष उसीको अपना गुरु चुने, दूसरेको नहीं।
योग्य गुरुका जबतक अच्छी तरह ज्ञान न हो जाय, तबतक विनयाचार-चतुर मुमुक्षु शिष्योंको उनकी निरन्तर सेवा करनी चाहिये।
उनका अच्छी तरह ज्ञान – सम्यक् परिचय हो जानेपर उनमें सुस्थिर भक्ति करे।
जबतक तत्त्वका बोध न प्राप्त हो जाय, तबतक निरन्तर गुरुसेवनमें लगा रहे।
तत्त्वको न तो कभी छोड़े और न किसी तरह भी उसकी उपेक्षा ही करे।
जिसके पास एक वर्षतक रहनेपर भी शिष्यको थोड़ेसे भी आनन्द और प्रबोधकी उपलब्धि न हो, वह शिष्य उसे छोड़कर दूसरे गुरुका आश्रय ले।
गुरुको भी चाहिये कि वह अपने आश्रित ब्राह्मणजातीय शिष्यकी एक वर्षतक परीक्षा करे।
क्षत्रिय शिष्यकी दो वर्ष और वैश्यकी तीन वर्षतक परीक्षा करे।
प्राणोंको संकटमें डालकर सेवा करने और अधिक धन देने आदिका अनुकूल-प्रतिकूल आदेश देकर, उत्तम जातिवालोंको छोटे काममें लगाकर और छोटोंको उत्तम काममें नियुक्त करके उनके धैर्य और सहनशीलताकी परीक्षा करे।
गुरुके तिरस्कार आदि करनेपर भी जो विषादको नहीं प्राप्त होते, वे ही संयमी, शुद्ध तथा शिव-संस्कार कर्मके योग्य हैं।
जो किसीकी हिंसा नहीं करते, सबके प्रति दयालु होते, सदा हृदयमें उत्साह रखकर सब कार्य करनेको उद्यत रहते; अभिमानशून्य, बुद्धिमान् और स्पर्धारहित होकर प्रिय वचन बोलते; सरल, कोमल, स्वच्छ, विनयशील, सुस्थिरचित्त, शौचाचारसे संयुक्त और शिवभक्त होते, ऐसे आचार-व्यवहारवाले द्विजातियोंको मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा यथोचित रीतिसे शुद्ध करके तत्त्वका बोध कराना चाहिये, यह शास्त्रोंका निर्णय है।
शिव-संस्कार कर्ममें नारीका स्वतः अधिकार नहीं है।
यदि वह शिवभक्त हो तो पतिकी आज्ञासे ही उक्त संस्कारकी अधिकारिणी होती है।
विधवा स्त्रीका पुत्र आदिकी अनुमतिसे और कन्याका पिताकी आज्ञासे शिव-संस्कारमें अधिकार होता है।
शूद्रों, पतितों और वर्णसंकरोंके लिये षडध्वशोधन (शिव-संस्कार)-का विधान नहीं है।
वे भी यदि परमकारण शिवमें स्वाभाविक अनुराग रखते हों तो शिवका चरणोदक लेकर अपने पापोंकी शुद्धि करें।
(अध्याय १५) १. कण्ठसे गद् गदवाणीका प्रकट होना।
२. नेत्रोंसे अश्रुपात होना।
३. शरीरमें स्तम्भ (जड़ता) तथा स्वेद आदिका उदय होना।
* अन्योन्यं तारयेन्नौका किं शिला तारयेच्छिलाम्।
एतस्य नाममात्रेण मुक्तिर्वै नाममात्रिका।।
यैः पुनर्विदितं तत्त्वं ते मुक्त्वा मोचयन्त्यपि।
तत्त्वहीने कुतो बोधः कुतो ह्यात्मपरिग्रहः।।
(शि० पु० वा० सं० उ० ख० १५।३८-३९)
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