श्री बद्रीनाथजी की आरती
पवन मंद सुगंध शीतल,
हेम मन्दिर शोभितम्।
निकट गंगा बहत निर्मल,
श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम्॥
शेष सुमिरन, करत निशदिन,
धरत ध्यान महेश्वरम्।
वेद ब्रह्मा करत स्तुति
श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम्॥
इन्द्र चन्द्र कुबेर दिनकर,
धूप दीप निवेदितम्।
सिद्ध मुनिजन करत जय जय
श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम्॥
शक्ति गौरी गणेश शारद,
नारद मुनि उच्चारणम्।
योग ध्यान अपार लीला
श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम्॥
यक्ष किन्नर करत कौतुक,
गान गंधर्व प्रकाशितम्।
लक्ष्मी देवी चंवर डोले
(श्री भूमि लक्ष्मी चँवर डोले)
श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम्॥
कैलाशमे एक देव निरंजन,
शैल शिखर महेश्वरम।
राजा युधिष्टिर करत स्तुती,
श्री बद्रीनाथ विश्व्म्भरम्॥
यह बद्रीनाथ पंच रत्न,
पठन पाप विनाशनम्।
नरनारायण तप निरत
श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम्॥
Or
(श्री बद्रीनाथ (जी) की परम स्तुति,
यह पढत पाप विनाशनम्।
कोटि-तीर्थ सुपुण्य सुन्दर,
सहज अति फलदायकम्॥)
पवन मंद सुगंध शीतल,
हेम मन्दिर शोभितम्।
निकट गंगा बहत निर्मल,
श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम्॥
Shri Badrinath Stuti – Shri Badrinath Aarti
Anuradha Paudwal
Shiv Bhajan
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सृष्टि के कण कण में ईश्वर भक्ति
प्रभु की महिमा महान् है। अनु अनु में उसकी सत्ता विद्यमान है। ये सूर्य, चन्द्र, तारे तथा संसारके सारे पदार्थ उसकी सर्वव्यापकताके साक्षी है।
सुबहकी लालिमा जब चारों ओर छा जाती है, भांति भांति के पक्षी अपने विविध कलरवसे उसीकी भक्तिके गीत गाते हैं। पहाड़ी झरनोंमे उसी का संगीत है ।
जिस प्रकार समाधिकी अवस्थामे एक योगी बिल्कुल निश्चेष्ट होकर ईश्वरके ध्यान में स्थिर हो जाता है, उसी प्रकार ये ऊँचे-ऊँचे पहाड़ अपने सिरोंको हिम की सफेद चादरसे ढककर ध्यानावस्थित होकर अपने निर्माताकी भक्तिमें मौन भावसे खड़े हैं।
कभी-कभी भक्तिके आवेशमें भक्तकी ऑखोंसे प्रेमके अश्रु छलक पड़ते है। उसी प्रकार पर्वतोंके अंदरसे जो नदियाँ प्रवाहित हो रही है, वे ऐसी लगती है, मानो उन पर्वतोंके हृदयसे जलधाराएँ भक्तिके रूपमें निकल पड़ी हें।
जब ईश्वर-भक्त परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है, उसका हदय भी गद्गद होकर उसकी ओर आकर्षित हो जाता है।
प्रकृति देवी परमात्मा की भक्तिमें दिनरात लगी रहती है। एक वाटिकाके खिले फूल अपनी आकर्षक सुरभिके साथ मूक स्वरसे ईश्वरका स्मरण करते रहते है।
सूर्यकी प्रचण्डता, चन्द्र का शीतल प्रकाश, तारोंका झिलमिल प्रकाश, हिमाच्छादित पर्वतमालाएँ, कलकल करती हुई सरिताएँ, झरझर झरते हुए झरने मानो अपने निर्माताकी अर्थात ईश्वरकी भक्तिके गीत सदा गाते रहते है।
धर्मग्रन्थोंमें और वेदोंमें ईश्वर-भक्तिके विषयमें जो मन्त्र विद्यमान है, वे सारगर्भित तथा भक्तिके रससे भरे पड़े हैं।
ईश्वर-भक्तिके सुगन्धित पुष्प वेदोंके कई मन्त्रोमें विराजमान है, जो अपने प्राणकी सुगन्धसे पढ़नेवाले व्यक्तिके हृदयको सुवासित कर देते हैं।
वेदमें एक मन्त्र आता है –
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः।
यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहु कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
जिसकी महिमाका गान हिमसे ढके हुए पहाड कर रहे है, जिसकी भक्तिका राग समुद्र अपनी सहायक नदियोंके साथ सुना रहा है, और ये विशाल दिशाएँ जिसके बाज़ुओंके सदृश हैं, उस आनन्दस्वरूप प्रभुको मेरा नमस्कार है।
इसलिए वेद और धर्मग्रंथ हमें आदेश देते हैं कि, वह ईश्वर जिसकी महिमा का वर्णन ये सब पदार्थ कर रहे है, जिसकी भक्तिका राग यह सकल ब्रह्माण्ड गा रहा है – हे मनुष्य, यदि दुःखोंसे छूटना चाहता है, तो तू भी उसीकी भक्ति कर। इसके अतिरिक्त दुःखोंसे छूटनेका कोई दूसरा मार्ग नहीं।
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