स्तुति, प्रार्थना और उपासना में क्या फर्क है?

Stuti – Prarthana – Upasana

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स्तुति, प्रार्थना और उपासना में क्या फर्क है?


स्तुति

स्तुति का अर्थ है – किसी भी पदार्थमें स्थित उसके गुणोंका यथोचित रूपमें वर्णन करना।

इस दृष्टिसे जब कोई कहता हैं कि – गौतम बहुत श्रेष्ठ व्यक्ति है, सदाचारी है, सत्यवादी है – तब उसका अभिप्राय केवल इतना ही नहीं होता कि, वह जिससे (जिन शब्दो से) गौतमकी स्तुति करता हैं, वह उसके गुणोंको जान जाय।

बल्कि उसकी इच्छा होनी चाहिए कि जब वह गौतमके गुणोंका वर्णन करता हैं, तब वह उसके समीप जाय, उससे भेंट करे, उसका संग करे और उससे लाभ उठाये।


ईश्वर की स्तुति

ईश्वर की स्तुति शब्द का उपयोग, ईश्वर के जो अवतार हुए है उनके गुणों के कीर्तन के लिए किया जाता है।

परन्तु जब कोई व्यक्ति ईश्वर के गुणों का गान सिर्फ दिखावे के लिए कर रहा है या अंधविश्वास के कारण कर रहा है, और उन गुणों को अपने जीवन में नहीं अपनाता है, तो उसका स्तुति करना व्यर्थ है।

जब हम भगवान् रामके मर्यादा पुरुषोत्तम-तत्वके गुणोंका बखान करते हैं, तो हमारी इच्छा होनी चाहिए कि हम उनके आदर्शोपर चले।

इसलिये स्तुति तब तक निरर्थक ही रहती है, जब तक उसके बाद की क्रिया प्रार्थना या उपासना न की जाय।

अतः स्तुतिका अन्त होता है प्रार्थनामें अथवा उपासनामें।


प्रार्थना और उपासना

प्रार्थना अर्थात – जिसकी हम स्तुति कर रहे है, उसके गुणोंका बखान करके, उससे उन गुणों की प्राप्तिके लिये सामर्थ्य की याचना करना। जिससे उन गुणों को हम अपने जीवन में उतार सके।

उपासना अर्थात – जिसकी हम स्तुति कर रहे है, उसके गुणोंको अपने अंदर धारण करके उसके समीपमें जाना।


जब तक उपासक और उपास्य (जिसकी उपासना कर रहे है) में एकरूपता न होगी, उपासना अर्थात समीप बैठना, समीप जाना वा बन्धुत्व-प्राप्ति करना नितान्त असम्भव है; क्योंकि – समानशीलव्यसनेषु मैत्री अर्थात समान गुण-कर्मवालों में ही मैत्री होती है।


उपासना कब संभव है?

भगवान के जो अवतार है, वे है ज्ञानके पुञ्ज, सत्यव्रत, सर्वदोष-विवर्जित।
और मनुष्य है अज्ञानान्धकारसे आवृत, सर्वदोषयुक्त, मिथ्यावादी (झूठ बोलने वाला)।
– तब कभी भी उपासना नहीं हो सकती।

उपासक और उपास्य में जितना फर्क ज्यादा रहेगा, सच्ची भक्ति या उपासना नहीं हो सकती।

इसलिए स्तुति के बाद हमे, सतगुणो को अपने जीवन में उतारने के लिए, ईश्वर से प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए, ताकि सिर्फ स्तुति निरर्थक ना हो जाए।


उदाहरण – स्तुति के बाद प्रार्थना, उपासना

इसलिये वेदोंके और उपनिषदोंके मन्त्रों में ईश्वर की स्तुतिके साथ प्रार्थना वा उपासना दोनोंमेंसे एक अंग अवश्य साथ रहता है।


उपनिषदकी एक प्रार्थना सर्व प्रसिद्ध है –

असतो मा सद् गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय॥

हे प्रभो! हमें असतसे (अज्ञानसे) सत् (ज्ञानकी) प्राप्ति कराओ। ज्ञान प्राप्त होनेपर तम (अन्धकार) को दूर करके अपनी शुभ ज्योति प्रकाशको प्राप्त कराओ और मृत्युसे (जन्म-मरणके चक्रसे) छुड़ाकर अमृतको प्राप्त कराओ।


इसी प्रकार वेदोंके मन्त्रों में स्तुतिके साथ प्रार्थना या उपासना दोनों में से एक अंग अवश्य सम्बद्ध रहता है। जैसे की –

त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ।
अधा ते सुम्नमीमहे। (ऋ० ८। ९८। ११)

अर्थ-
हे प्रभु! सबको बसानेवाले, सारे संसारको आच्छादित करनेवाले अर्थात् सबसे महान् तुम ही हमारे पिता हो, पालक हो, रक्षक हो। हे ईश्वर! सैकड़ों सहस्रों प्रकारके कार्योको करनेवाले विविध ब्रह्माण्डके रचयिता प्रभो! तुम ही हमारी माता हो।

तुम जैसे सर्वतोमहान् माता-पिताको पाकर तुमसे ही तुम्हारे उस सुखकी, उस आनन्दकी कामना करते हैं, याचना करते हैं जो तुम्हारे में है। जिससे तुम आनन्दस्वरूप हो। वही नित्यानन्द हमें भी प्राप्त कराओ।


स नः पितेव सूनवे अग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये॥ (ऋ० १।१।९)

अर्थ –
हे अग्ने ! प्रकाशमान ज्ञानस्वरूप प्रभो! आप हमारे पर वैसे ही कृपालु होओ, वैसे ही सुखों के प्राप्त करानेवाले होओ, जैसे पिता अपने बालकोंके सुखकी कामना करता है। और हमें नित्य रहनेवाले अखण्ड कल्याणके लिये समर्थ करो।


विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रं तन्न आ सुव॥ (ऋ० ५। ८२। ५)

अर्थ –
हे सम्पूर्ण संसारके प्रकाशक और उत्पन्न करनेवाले देव! हमारे सम्पूर्ण दुरितोंको, पापोंको-पापमयी वासनाओंको हमसे दूर करिये और जो कुछ भी संसारमें भद्र है, हमारे लिये कल्याणकारी है, ऐसे उत्तम श्रेष्ठ गुणों वा पदार्थोंको प्राप्त कराइये।


नमः सायं नमः प्रातर्नमो रात्र्या नमो दिवा।
भद्राय च शर्वाय चोभाभ्यामकरं नमः॥
(अथर्व० ११। २। १६)

अर्थ –
हे भव! सारे संसारको उत्पन्न करनेवाले और सुखस्वरूप तथा सर्वजीवोंके सभी दु:खोंके नाश करनेवाले प्रभो! तुम्हारे दोनों स्वरूपोंके लिये हम प्रातः-सायं दिन-रात बहुधा नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये सुखके देनेवाले और दुःखोंको दूर करनेवाले होइये।


अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।
(ऋ० १।१८९। १)

अर्थ –
हे मार्गदर्शक नेता ! आप हमें धन, सम्पत्ति वा आत्मिक कल्याणके लिये अच्छे मार्गसे-शुभमार्गसे ले चलिये। हे देव! आप हमारे सब कर्मोको जाननेवाले हैं; क्योंकि आप घट-घटवासी हैं। इतना ही नहीं, हे प्रभो! हमारे सम्पूर्ण पापोंको–कुटिलताओंको हमसे दूर करिये, जिससे हम निष्पाप हो सकें। इसके लिये हे प्रभो! हम आपको बहुत प्रकारसे स्तुति-प्रार्थना करते हैं।


यद्ग्रामे यदरण्ये यत् सभायां यदिन्द्रिये।
यदेनश्चकृमा वयमिदं तदव यजामहे स्वाहा॥
(यजु० ३।४४)

अर्थ –
हे पापोंको दूर करनेवाले प्रभो ! हमने जो ग्राममें, जो सभामें, जो अपनी इन्द्रियोंके विषयमें अर्थात् अपने और परायेके लिये जो भी पाप, बुरा कर्म, बुरा आचरण मनसा-वाचा-कर्मणा किया है, उसको हम इसी समय आपकी प्रत्यक्षतामें आपको सर्वद्रष्टा जानते हुए छोड़ रहे हैं।

हम अपनी प्रतिज्ञाके निभानेके लिये समर्थ हों। प्रभो! हमें इस शुभ प्रतिज्ञाके निभानेके लिये सामर्थ्य दो।


इस प्रकार वेदोंमें और उपनिषदोंमें प्रभुकी सर्वत्र विविध नामोंसे स्तुति करके अपने दोषोंको दूर करने और शुभ गुणोंकी प्राप्तिके लिये प्रार्थनाएँ मिलती हैं।


वैदिक प्रार्थनाओंका वैशिष्ट्य

वैदिक प्रार्थनाओंका एक वैशिष्ट्य यह भी है कि उसमे अपने सुखकी वा कल्याणकी अपेक्षा सामूहिक कल्याणको महत्त्व दिया गया है। उसमें प्रायः समष्टिका का, सर्वत्र बहुवचनका प्रयोग है। इससे यह स्पष्ट है कि वैदिक धर्ममें सामूहिक कल्याणको प्रधानता दी गई है ।

इसीके अनुरूप हम भगवान् वाल्मीकिके शब्दों में आज भी कामना करते हैं

सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्॥

अर्थात् सब सुखी हों, सब स्वस्थ हों, सब कल्याणके भागी हों। कोई भी दुःखी न रहे।

सब मनोकामनाएँ, चाहे वे लौकिकी हों, चाहे पारलौकिकी, प्रभुकी प्रार्थना, प्रभुकी भक्ति और प्रभुके नामस्मरणसे ही पूर्ण होती है ।

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