हनुमानजी और विभीषण का संवाद
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
विभीषण कहते है की हे हनुमानजी! हमारी रहनी हम कहते है सो सुनो। जैसे दांतों के बिचमें बिचारी जीभ रहती है, ऐसे हम इन राक्षसोंके बिच में रहते है॥
हे प्यारे! वे सूर्यकुल के नाथ (रघुनाथ) मुझको अनाथ जानकर कभी कृपा करेंगे?
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प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
जिससे प्रभु कृपा करे ऐसा साधन तो मेरे है नहीं। क्योंकि मेरा शरीर तो तमोगुणी राक्षस है, और न कोई प्रभुके चरणकमलों में मेरे मनकी प्रीति है॥
परन्तु हे हनुमानजी, अब मुझको इस बातका पक्का भरोसा हो गया है कि भगवान मुझपर अवश्य कृपा करेंगे। क्योंकि भगवानकी कृपा बिना सत्पुरुषोंका मिलाप नहीं होता॥
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तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥
रामचन्द्रजी ने मुझपर कृपा की है। इसीसे आपने आकर मुझको दर्शन दिए है॥
विभीषणके यह वचन सुनकर हनुमानजीने कहा कि हे विभीषण! सुनो, प्रभुकी यह रीतीही है की वे सेवकपर सदा परमप्रीति किया करते है॥
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कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥
हनुमानजी कहते है की कहो मै कौनसा कुलीन पुरुष हूँ। हमारी जाति देखो (चंचल वानर की), जो महाचंचल और सब प्रकारसे हीन गिनी जाती है॥ जो कोई पुरुष प्रातःकाल हमारा (बंदरों का) नाम ले लेवे तो उसे उसदिन खानेको भोजन नहीं मिलता॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥7॥
हे सखा, सुनो मै ऐसा अधम नीच हूँ। तिस पर भी रघुवीरने कृपा कर दी, तो आप तो सब प्रकारसे उत्तम हो॥
आप पर कृपा करे इस में क्या बड़ी बात है। ऐसे प्रभु श्री रामचन्द्रजी के गुणोंका स्मरण करनेसे दोनों के नेत्रोमें आंसू भर आये॥
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हनुमानजी और विभीषण का संवाद
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥
जो मनुष्य जानते बुझते है ऐसे स्वामीको छोड़ बैठते है। वे दूखी क्यों न होंगे?
इस तरह रामचन्द्रजीके परम पवित्र व कानोंको सुख देने वाले गुणग्रामको (गुणसमूहोंको) विभीषणके कहते कहते हनुमानजी ने विश्राम पाया॥
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जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता॥
फिर विभीषण ने हनुमानजी से वह सब कथा कही, कि सीताजी जिस जगह, जिस तरह रहती थी। तब हनुमानजी ने विभीषण से कहा हे भाई सुनो, मैं सीता माताको देखना चाहता हूँ॥
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चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ॥
सो मुझे उपाय बताओ। हनुमानजी के यह वचन सुनकर विभीषण ने वहांकी सब तदबिज सुनाई। तब हनुमानजी भी विभीषणसे विदा लेकर वहांसे चले॥
फिर वैसाही छोटासा स्वरुप धर कर हनुमानजी वहा गए कि जहा अशोकवनमें सीताजी रहा करती थी॥
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हनुमानजी ने अशोकवन में सीताजी को देखा
बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥
हनुमानजी ने सीताजी का दर्शन करके उनको मनही मनमें प्रणाम किया और बैठे। इतने में एक प्रहर रात्रि बीत गयी॥
हनुमानजी सीताजी को देखते है, सो उनका शरीर तो बहुत दुबला हो रहा है। सरपर लटोकी एक वेणी बंधी हुई है। और अपने मनमें श्री राम के गुणों का जप कर रही है॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥8॥
और अपने पैरो में दृष्टि लगा रखी है। मन रामचन्द्रजी के चरणों में लीन हो रहा है।
सीताजीकी यह दीन दशा देखकर हनुमानजीको बड़ा दुःख हुआ॥
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अशोक वाटिका में रावण और सीताजी का संवाद
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा॥
साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥
हनुमानजी वृक्षों के पत्तो की ओटमें छिपे हुए मनमें विचार करने लगे कि हे भाई अब मै क्या करू? ॥
उस अवसरमें बहुतसी स्त्रियोंको संग लिए रावण वहा आया। जो स्त्रिया रावणके संग थी, वे बहुत प्रकार के गहनों से बनी ठनी थी॥बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥
उस दुष्टने सीताजी को अनेक प्रकार से समझाया। साम, दाम, भय और भेद अनेक प्रकारसे दिखाया॥
रावणने सीतासे कहा कि हे सुमुखी! जो तू एकबार भी मेरी तरफ देख ले तो हे सयानी॥
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एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही॥
जो ये मेरी मंदोदरी आदी रानियाँ है इन सबको तेरी दासियाँ बना दूं यह मेरा प्रण जान॥
रावण का वचन सुन बीचमें तृण रखकर (तिनके का आड़ – परदा रखकर), परम प्यारे रामचन्द्रजीका स्मरण करके सीताजीने रावण से कहा॥
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कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥
की हे रावण! सुन, खद्योत अर्थात जुगनू के प्रकाश से कमलिनी कदापी प्रफुल्लित नहीं होती। किंतु कमलिनी सूर्यके प्रकाशसेही प्रफुल्लित होती है। अर्थात तू खद्योतके (जुगनूके) समान है और रामचन्द्रजी सूर्यके सामान है॥
सीताजीने अपने मन में ऐसे समझकर रावणसे कहा कि रे दुष्ट! रामचन्द्रजीके बाणको अभी भूल गया क्या? वह रामचन्द्रजी का बाण याद नहीं है॥
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अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥
अरे निर्लज्ज! अरे अधम! रामचन्द्रजी के सूने तू मुझको ले आया। तुझे शर्म नहीं आती॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥9॥
सीता के मुख से कठोर वचन अर्थात अपनेको खद्योतके (जुगनूके) तुल्य और रामचन्द्रजीको सुर्यके समान सुनकर रावण को बड़ा क्रोध हुआ। जिससे उसने तलवार निकाल कर ये वचन कहे ॥9॥