सुंदरकाण्ड - 5

Sunderkand – 05

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हनुमान सीताजी से मिले

Sunderkand - Hanuman Meets Sitaji


चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥

फिर सीताजीने उस मुद्रिकाको देखा तो वह सुन्दर मुद्रिका रामचन्द्रजीके मनोहर नामसे अंकित हो रही थी अर्थात उसपर श्री राम का नाम खुदा हुआ था॥
उस मुद्रिकाको देखतेही सीताजी चकित होकर देखने लगी। आखिर उस मुद्रिकाको पहचान कर हृदय में अत्यंत हर्ष और विषादको प्राप्त हुई और बहुत अकुलाई॥
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जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥

यह क्या हुआ? यह रामचन्द्रजीकी नामांकित मुद्रिका यहाँ कैसे आयी? या तो उन्हें जितनेसे यह मुद्रिका यहाँ आ सकती है, किंतु उन अजेय रामचन्द्रजीको जीत सके ऐसा तो जगतमे कौन है? अर्थात उनको जीतनेवाला जगतमे है ही नहीं। और जो कहे की यह राक्षसोने मायासे बनाई है सो यह भी नहीं हो सकता। क्योंकि मायासे ऐसी बन नहीं सकती॥
इस प्रकार सीताजी अपने मनमे अनेक प्रकार से विचार कर रही थी। इतनेमें ऊपरसे हनुमानजी ने मधुर वचन कहे॥
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रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई॥

हनुमानजी रामचन्द्रजीके गुनोका वर्णन करने लगे। उनको सुनतेही सीताजीका सब दुःख दूर हो गया॥
और वह मन और कान लगा कर सुनने लगी। हनुमानजीने भी आरंभसे लेकर सब कथा सीताजी को सुनाई॥
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श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥

हनुमानजीके मुखसे रामचन्द्रजीका चरितामृत सुनकर सीताजीने कहा कि जिसने मुझको यह कानोंको अमृतसी मधुर लगनेवाली कथा सुनाई है वह मेरे सामने आकर प्रकट क्यों नहीं होता?
सीताजीके ये वचन सुनकर हनुमानजी चलकर उनके समीप गए तो हनुमानजी का वानर रूप देखकर सीताजीके मनमे बड़ा विस्मय हुआ की यह क्या! सो कपट समझकर हनुमानजी को पीठ देकर बैठ गयी॥
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राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

तब हनुमानजीने सीताजीसे कहा की हे माता! मै रामचन्द्रजीका दूत हूं। मै रामचन्द्रजीकी शपथ खाकर कहता हूँ की इसमें फर्क नहीं है॥
और रामचन्द्रजीने आपके लिए जो निशानी दी थी, वह यह मुद्रिका (अँगूठी) मैंने लाकर आपको दी है॥
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नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें॥

तब सिताजी ने कहा की हे हनुमान! नर और वानरोंके बीच आपसमें प्रीति कैसे हुई वह मुझे कह। तब उनके परस्परमे जैसे प्रीति हुई थी वे सब समाचार हनुमानजी ने सिताजीसे कहे॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥13॥

हनुमानजीके प्रेमसहित वचन सुनकर सीताजीके मनमे पक्का भरोसा आ गया और उन्होंने जान लिया की यह मन, वचन और कायासे कृपासिंधु श्रीरामजी के दास है॥
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हनुमान ने सीताजी को आश्वासन दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥

हनुमानजी को हरिभक्त जानकर सीताजीके मन में अत्यंत प्रीति बढ़ी, शरीर अत्यंत पुलकित हो गया और नेत्रोमे जल भर आया॥
सीताजीने हनुमान से कहा की हे हनुमान! मै विरहरूप समुद्रमें डूब रही थी, सो हे तात! मुझको तिरानेके लिए तुम नौका हुए हो॥
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अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥

अब तुम मुझको बताओ कि सुखधाम श्रीराम लक्ष्मणसहित कुशल तो है॥
हे हनुमान! रामचन्द्रजी तो बड़े दयालु और बड़े कोमलचित्त है। फिर यह कठोरता आपने क्यों धारण कि है? ॥
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सहज बानि सेवक सुखदायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥

यह तो उनका सहज स्वभावही है कि जो उनकी सेवा करता है उनको वे सदा सुख देते रहते है॥ सो हे हनुमान! वे रामचन्द्रजी कभी मुझको भी याद करते है? ॥
कभी मेरे भी नेत्र रामचन्द्रजीके कोमल श्याम शरिरको देखकर शीतल होंगे॥
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बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥

सीताजीकी उस समय यह दशा हो गयी कि मुखसे वचन निकलना बंद हो गया और नेत्रोमें जल भर आया। इस दशा में सीताजीने प्रार्थना की, कि हे नाथ! मुझको आप बिल्कुल ही भूल गए॥
सीताजीको विरह्से अत्यंत व्याकुल देखकर हनुमानजी बड़े विनयके साथ कोमल वचन बोले॥
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मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥

हे माता! लक्ष्मणसहित रामचन्द्रजी सब प्रकार से प्रसन्न है, केवल एक आपके दुःख से तो वे कृपानिधान अवश्य दुखी है। बाकी उनको कुछ भी दुःख नहीं है॥
हे माता! आप अपने मनको उन मत मानो (अर्थात रंज मत करो, मन छोटा करके दुःख मत कीजिए), क्योंकि रामचन्द्रजीका प्यार आपकी और आपसे भी दुगुना है॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥14॥

हे माता! अब मै आपको जो रामचन्द्रजीका संदेशा सुनाता हूं सो आप धीरज धारण करके उसे सुनो ऐसे कह्तेही हनुमानजी प्रेम से गदगद हो गए और नेत्रोमे जल भर आया ॥14॥
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हनुमान ने सीताजीको रामचन्द्रजीका सन्देश दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

हनुमानजी ने सीताजी से कहा कि हे माता! रामचन्द्रजी ने जो सन्देश भेजा है वह सुनो। रामचन्द्रजी ने कहा है कि तुम्हारे वियोगमें मेरे लिए सभी बाते विपरीत हो गयी है॥
नविन कोपलें तो मानो अग्निरूप हो गए है। रात्रि मानो कालरात्रि बन गयी है। चन्द्रमा सूरजके समान दिख पड़ता है॥
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कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥

कमलोका वन मानो भालोके समूहके समान हो गया है। मेघकी वृष्टि मानो तापे हुए तेलके समान लगती है॥
मै जिस वृक्षके तले बैठता हूं, वही वृक्ष मुझको पीड़ा देता है और शीतल, सुगंध, मंद पवन मुझको साँपके श्वासके समान प्रतीत होता है॥
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कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥

और अधिक क्या कहूं? क्योंकि कहनेसे कोई दुःख घट थोडाही जाता है? परन्तु यह बात किसको कहूं! कोई नहीं जानता॥
मेरे और आपके प्रेमके तत्वको कौन जानता है! कोई नहीं जानता। केवल एक मेरा मन तो उसको भलेही पहचानता है॥
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सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥

पर वह मन सदा आपके पास रहता है। इतने ही में जान लेना कि राम किस कदर प्रेमके वश है॥
रामचन्द्रजीके सन्देश सुनतेही सीताजी ऐसी प्रेममे मग्न हो गयी कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रही॥
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कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु ताई।रघुपति प्रभु
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥

उस समय हनुमानजीने सीताजीसे कहा कि हे माता! आप सेवकजनोंके सुख देनेवाले श्रीराम को याद करके मनमे धीरज धरो॥
श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुताको हृदयमें मानकर मेरे वचनोको सुनकर विकलताको तज दो (छोड़ दो)॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥15॥

हे माता! रामचन्द्रजीके बानरूप अग्निके आगे इस राक्षस समूहको आप पतंगके समान जानो और इन सब राक्षसोको जले हुए जानकर मनमे धीरज धरो ॥15॥


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