हनुमानजीका लंका से वापिस लौटना
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥
सपुद्रको लांघकर हनुमानजी समुद्रके इस पार आए। और उस समय उन्होंने किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सब बन्दरोंको सुनाया॥
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हनुमानजीने लंकासे लौटकर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन वहां पहुंचे। उस समय दौड़ दौड़ कर वानर बडी त्वराके साथ हनुमानजीसे मिले॥)
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नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥
हुनमानजीका मुख अति प्रसन्न और शरीर तेजसे अत्यंत दैदीप्यमान देखकर वानरोंने जान लिया कि हनुमानजी रामचन्द्रजीका कार्य करके आए है॥
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तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा॥
फिर वे सब सुन्दर इतिहास पूंछते हुए आर कहते हुए आनंदके साथ रामचन्द्रजीके पास चले॥
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अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥
जब वहांके पहरेदार बरजने लगे तब उनको मुक्कोसे ऐसा मारा कि वे सब वहांसे भाग गये॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥
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हनुमानजी सुग्रीव से मिले
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥
राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे। इतनेमें समाजके साथ वे तमाम वानर बहां चले आये॥
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मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥
और आकर उन सभीने नमस्कार किया तब बड़े प्यारके साथ सुग्रीव उन सबसे मिले॥
सुग्रीवने सभीसे कुशल पूंछा तब उन्होंने कहा कि नाथ! आपके चरण कुशल देखकर हम कुशल हैं और जो यह काम बना है सो केवल रामचन्द्रजीकी कृपासे बना है॥
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राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥
यह बात सुनकर सुग्रीव उठकर फिर हनुमानजीसे मिले और वानरोंके साथ रामचन्द्रजीके पास आए॥
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किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29॥
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हनुमानजी और सुग्रीव रामचन्द्रजी से मिले
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
उसके सदा सर्वदा शुभ और कुशल निरंतर रहते हें। तथा देवता मनुष्य और मुनि सभी उसपर सदा प्रसन्न रहते हैं॥
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तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥
यह सब काम आपकी कृपासे सिद्ध हुआ हैं। और हमारा जन्म भी आजही सफल हुआ है॥
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सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी॥)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
(वह कोई आदमी जो लाख मुखोंसे कहना चाहे तो भी वह कहा नहीं जा सकता)॥
हनुमानजीकी प्रशंसाके वचन और कार्य जाम्बवानने रामचन्द्रजीको सुनाये॥
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पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
और श्रीरामने हनुमानजीसे पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणोंकी रक्षा वह किस तरह करती है?॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30॥