Sunderkand – 12
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श्री राम और हनुमानजी का संवाद
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर हनुमानजीने कहा कि हे नाथ! मुझे तो कृपा करके आपकी अनपायिनी (जिसमें कभी विच्छेद नहीं पडे ऐसी, निश्चल) कल्याणकारी और सुखदायी भक्ति दो॥
महादेवजीने कहा कि हे पार्वती! हनुमानकी ऐसी परम सरल वाणी सुनकर प्रभुने कहा कि हे हनुमान्! ‘एवमस्तु’ (ऐसाही हो) अर्थात् तुमको हमारी भक्ति प्राप्त हो॥
महादेवजीने कहा कि हे पार्वती! हनुमानकी ऐसी परम सरल वाणी सुनकर प्रभुने कहा कि हे हनुमान्! ‘एवमस्तु’ (ऐसाही हो) अर्थात् तुमको हमारी भक्ति प्राप्त हो॥
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उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
हे पार्वती! जिन्होंने रामचन्द्रजीके परम दयालु स्वभावको जान लिया है, उनको रामचन्द्रजीकी भक्तिको छोंड़कर दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता॥
यह हनुमान् और रामचन्द्रजीका संवाद जिसके हृदयमें दृढ़ रीतिसे आ जाता है, वह श्री रामचन्द्रजीकी भक्तिको अवश्य पा लेता है॥
यह हनुमान् और रामचन्द्रजीका संवाद जिसके हृदयमें दृढ़ रीतिसे आ जाता है, वह श्री रामचन्द्रजीकी भक्तिको अवश्य पा लेता है॥
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सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥
प्रभुके ऐसे वचन सुनकर तमाम वानरवृन्दने पुकार कर कहा कि हे दयालू! हे सुखके मूलकारण प्रभु! आपकी जय हो, जय हो, जय हो॥
उस समय प्रभुने सुग्रीवको बुलाकर कहा कि हे सुग्रीव! अब चलनेकी तैयारी करो॥
उस समय प्रभुने सुग्रीवको बुलाकर कहा कि हे सुग्रीव! अब चलनेकी तैयारी करो॥
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अब बिलंबु केह कारन कीजे।
तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी॥
तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी॥
अब विलम्ब क्यों किया जाता है। अब तुम वानरोंको तुरंत आज्ञा क्यो नहीं देते हो॥
इस कौतुकको देखकर (भगवान की यह लीला) देवताओंने आकाशसे बहुतसे फूल बरसाये और फिर वे आनंदित होकर अपने अपने लोक को चल दिये॥
इस कौतुकको देखकर (भगवान की यह लीला) देवताओंने आकाशसे बहुतसे फूल बरसाये और फिर वे आनंदित होकर अपने अपने लोक को चल दिये॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥34॥
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥34॥
रामचन्द्रजीकी आज्ञा होते ही सुग्रीवने वानरोंके सेनापतियोंको बुलाया और सुग्रीवकी आज्ञाके साथही वानर और रीछोके झुंड कि जिनके अनके प्रकारके वर्ण हैं और अतूलित बल हैं वे वहां आये॥
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श्री रामजी का वानरों की सेना के साथ समुद्र तट पर जाना
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
महाबली वानर और रीछ वहां आकर गर्जना करते हैं और रामचन्द्रजीके चरणकमलोंमें सिर झुँकाकर प्रणाम करते हैं॥
तमाम वानरॉकी सेनाको देखकर कमलनयन प्रभुने कृपा दृष्टिसे उनकी ओर देखा॥
तमाम वानरॉकी सेनाको देखकर कमलनयन प्रभुने कृपा दृष्टिसे उनकी ओर देखा॥
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राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
प्रभुकी कृपादृष्टि पड़तेही तमाम वानर रघुनाथजीके कृपाबलको पाकर ऐसे बली और बड़े होगये कि मानों पक्षसहित पहाड़ ही (पंखवाले बड़े पर्वत) तो नहीं है? ॥
उस समय रामचन्द्रजीने आनंदित होकर प्रयाण किया. तब नाना प्रकारके अच्छे और सुन्दर शगुनभी होने लगे॥
उस समय रामचन्द्रजीने आनंदित होकर प्रयाण किया. तब नाना प्रकारके अच्छे और सुन्दर शगुनभी होने लगे॥
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जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥
यह दस्तूर है कि जिसके सब मंगलमय होना होता है (जिनकी कीर्ति सब मंगलों से पूर्ण है) उसके प्रयाणके समय शगुनभी अच्छे होते है॥
प्रभुने प्रयाण किया उसकी खबर सीताजीको भी हो गई; क्योंकि जिस समय प्रभुने प्रयाण किया उस वक्त सीताजीके शुभसूचक बाएं अंग फड़कने लगे (मानो कह रह है की श्री राम आ रहे हैं)॥
प्रभुने प्रयाण किया उसकी खबर सीताजीको भी हो गई; क्योंकि जिस समय प्रभुने प्रयाण किया उस वक्त सीताजीके शुभसूचक बाएं अंग फड़कने लगे (मानो कह रह है की श्री राम आ रहे हैं)॥
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जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥
असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥
ओर जो जो शगुन सीताजीके अच्छे हुए वे सब रावणके बुरे शगुन हुए॥
इस प्रकार रामचन्द्रजीकी सेना रवाना हुई, कि जिसके अन्दर असंख्यात वानर और रीछ गरज रहे है. उस सेनाका वर्णन करके कौन आदमी पार पा सकता है (कौन कर सकता है?)॥
इस प्रकार रामचन्द्रजीकी सेना रवाना हुई, कि जिसके अन्दर असंख्यात वानर और रीछ गरज रहे है. उस सेनाका वर्णन करके कौन आदमी पार पा सकता है (कौन कर सकता है?)॥
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नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥
जिनके नखही तो शस्त्र हैं। पर्वत व वृक्ष हाथोंमें है वे इच्छाचारी वानर (इच्छानुसार सर्वत्र बेरोक-टोक चलनेवाले) और रीछ आकाशमें कूदते हुए, आकाशमार्ग होकर सेनाके बीच जा रहे है॥
वानर व रीछ मार्गमें जाते हुए सिंहनाद कर रहे है. जिससे दिग्गज हाथी डगमगाते हैं और चीत्कार करते हैं॥
वानर व रीछ मार्गमें जाते हुए सिंहनाद कर रहे है. जिससे दिग्गज हाथी डगमगाते हैं और चीत्कार करते हैं॥
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छंद – Sunderkand
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥
जब रामचन्द्रजीने प्रयाण किया तब दिग्गज चिंघाड़ने लगे, पृथ्वी डगमगाने लगी, पर्वत कांपने लगे, समुद्र खड़भड़ा गये, सूर्य आनंदित हुआ कि हमारे वंशमें दुष्टोंको दंड देनेवाला पैदा हुआ। देवता, मुनि, नाग व् किन्नर ये सब मन में हर्षित हुए कि अब हमारे दुःख टल गए। वानर विकट रीतिसे कटकटा रहे है, कोटयानकोट बहुतसे भट इधर उधर दौड़ रहे हैं और रामचन्द्रजीके गुणगणोंको गा रहे हैं कि हे प्रबलप्रतापवाले राम! आपकी जय हो॥
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छंद – Sunderkand
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥
उस सेनाके अपार भारको शेषजी (सर्पराज शेष) स्वयं सह नहीं सकते जिससे वारंवार मोहित होते
हें और अपने दाँतोंसे बार-बार कमठकी (कच्छप की) कठोर पीठको पकडे रहते है। सो वह शोभा कैसी मालूम होती है कि मानो रामचन्द्रजीके सुन्दर प्रयाणकी प्रस्थिति (प्रस्थान यात्रा) को परमरम्य जानकर शेषजी कमठकी पीठरूप खप्परपर अपने दांतोसे लिख रहे हैं, कि जिससे वह प्रस्थानका पवित्र संवत् च मिती सदा स्थिर बनी रहे, जैसे कुएं बावली मंदिर आदि बनानेवाले उसपर पत्थरमें प्रशस्ति खुदवाकर लगा देते है ऐसे शेषजी मानो कमठकी पीठपर प्रशस्तिही खोद रहे थे॥
हें और अपने दाँतोंसे बार-बार कमठकी (कच्छप की) कठोर पीठको पकडे रहते है। सो वह शोभा कैसी मालूम होती है कि मानो रामचन्द्रजीके सुन्दर प्रयाणकी प्रस्थिति (प्रस्थान यात्रा) को परमरम्य जानकर शेषजी कमठकी पीठरूप खप्परपर अपने दांतोसे लिख रहे हैं, कि जिससे वह प्रस्थानका पवित्र संवत् च मिती सदा स्थिर बनी रहे, जैसे कुएं बावली मंदिर आदि बनानेवाले उसपर पत्थरमें प्रशस्ति खुदवाकर लगा देते है ऐसे शेषजी मानो कमठकी पीठपर प्रशस्तिही खोद रहे थे॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥35॥
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥35॥
कृपाके भ्रंडार श्रीरामचन्द्रजी इस तरह जाकर समुद्रके तीरपर उतरे, तब वीर रीछ और वानर जहां तहां वहुतसे फल खाने लगे ॥35॥
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मंदोदरी और रावण का संवाद
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उवारा॥
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उवारा॥
जबसे हनुमान् लंकाको जलाकर चले गए तबसे वहां राक्षसलोग शंकासहित (भयभीत) रहने लगे॥
और अपने अपने घरमें सब विचार करने लगे कि अब राक्षसकुल बचनेका नहीं है (राक्षस कुल की रक्षा का कोई उपाय नहीं है)॥
और अपने अपने घरमें सब विचार करने लगे कि अब राक्षसकुल बचनेका नहीं है (राक्षस कुल की रक्षा का कोई उपाय नहीं है)॥
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जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी॥
तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी॥
हम लोग जिसके दूतके बलको भी कह नहीं सकते उसके आनेपर फिर पुरका भला कैसे हो सकेगा (बुरी दशा होगी)॥
नगरके लोगोंकी ऐसी अति भयसहित वाणी सुनकर मन्दोंदरी अपने मनमें बहुत घबरायी॥
नगरके लोगोंकी ऐसी अति भयसहित वाणी सुनकर मन्दोंदरी अपने मनमें बहुत घबरायी॥
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रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥
बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥
और एकान्तमें आकर हाथ जोड़कर पातिके चरणोंमे गिरकर नितिके रससे भरे हुए ये वचन बोली॥
हे कान्त! हरि भगवानसे जो आपके वैरभाव हैं उसे छोड़ दीजिए। मै जो आपसे कहती हूँ वह आपको अत्यंत हितकारी है सो इसको अपने चित्तमें धारण कीजिए॥
हे कान्त! हरि भगवानसे जो आपके वैरभाव हैं उसे छोड़ दीजिए। मै जो आपसे कहती हूँ वह आपको अत्यंत हितकारी है सो इसको अपने चित्तमें धारण कीजिए॥
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समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
भला अब उसके दूतके कामको तो देखो कि जिसको नाम लेनेसे राक्षसियोंके गर्भ गिर जाते हैं ॥
इसलिए हे कान्त! मेरा कहना तो यह है कि जो आप अपना भला चाहो तो, अपने मंत्रियोंको बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥
इसलिए हे कान्त! मेरा कहना तो यह है कि जो आप अपना भला चाहो तो, अपने मंत्रियोंको बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥
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तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
जैसे शीतऋतु अर्थात् शिशिर रीतुकी रात्रि (जाड़ेकी रात्रि) आनेसे कमलोंके बनका नाश हो जाता हे ऐसे तुम्हारे कुलरूप कमलबनका संहार करनेके लिये यह सीता शिशिर रितुकी रात्रिके समान आयी है॥
हे नाथ! सुनो, सीताको बिना देनेके तो चाहे महादेव ओर ब्रह्माजी भले कुछ उपाय क्यों न करे पर उससे आपका हित नहीं होगा॥
हे नाथ! सुनो, सीताको बिना देनेके तो चाहे महादेव ओर ब्रह्माजी भले कुछ उपाय क्यों न करे पर उससे आपका हित नहीं होगा॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥36॥
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥36॥
हे नाथ रामचन्द्रजीके बाण तो सर्पोके गणके (समूह) समान है और राक्षससमूह मेंडकके झुंडके समान हैं। सो वे इनका संहार नहीं करते इससे पहले पहले आप यत्न करो और जिस बातका हठ पकड़ रक्खा है उसको छोड़कर उपाय कर लीजिए॥