Sunderkand – 13
रावण और मंदोदरी का संवाद
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा॥
और बोला कि जगत्में जो यह बात कही जाती है कि स्त्रीका स्वभाव डरपोक होता है सो यह बात सच्ची है। और इसीसे तेरा मन मंगलकी बातमें अमंगल समझता है॥
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जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥
जिसकी त्रासके मारे लोकपाल कांपते है उसकी स्त्रीका भय होना यह तो एक बड़ी हँसीकी बात है॥
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चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥
परन्नु मन्दोदरीने उस वक़्त समझ लिया कि अब इस कान्तपर दैव प्रतिकूल होगया है॥
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सिंधु पार सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥
तब रावणने सब मंत्रियोंसे पूँछा की तुम अपना अपना जो योग्य मत हो वह कहो। तब वे सब मंत्री हँसे और चुप लगा कर रह गए (इसमें सलाह की कौन-सी बात है?)॥
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नर बानर केहि लेखे माहीं॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥37॥
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विभीषण का रावण को समझाना
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥
उस अवसरको जानकर विभीषण वहां आया और बड़े भाईके चरणों में उसने सिर नवाया॥
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बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥
और रावणकी आज्ञा पाकर यह वचन बोला, हे कृपालु! आप मुझसे जो बात पूछते हो सो हे तात! मैं भी मेरी बुद्धिके अनुसार कहूंगा॥
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सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
तब तो हे स्वामी! परस्त्रीके लिलारका (ललाट को) चौथके चांदकी नाई (तरह) त्याग दो (जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)॥
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भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥
जो आदमी गुणोंका सागर और चतुर है परंतु वह यदि थोड़ा भी लोभ कर जाय तो उसे कोई भी अच्छा नहीं कहता॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥38॥
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रावण को विभीषण का समझाना
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता॥
जो साक्षात् परब्रह्म, निर्विकार, अजन्मा, सर्वव्यापक, अजेय, आदि और अनंत ब्रह्म है॥
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कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥
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प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥
हे नाथ! रामचन्द्रजी को सीता दे दीजिए और कामना छोडकर स्नेह रखनेवाले रामका भजन करो॥
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बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥
हे रावण! आप अपने मनमें निश्चय समझो कि जिनका नाम लेनेसे तीनों प्रकारके ताप निवृत्त हो जाते हैं वेही प्रभु आज पृथ्वीपर प्रकट हुए हैं॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥39(क)॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥39(ख)॥