सुंदरकाण्ड - 14

Sunderkand – 14

Sunderkand – 14

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विभीषण और माल्यावान का रावण को समझाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥
वहां माल्यावान नाम एक सुबुद्धि मंत्री बैठा हुआ था. वह विभीषणके वचन सुनकर. अतिप्रसन्न हुआ ॥
और उसने रावणसे कहा कि तात ‘आपका छोटा भाई बड़ा नीति जाननेवाला हैँ इस वास्ते बिभीषण जो बात कहता है, उसी बातको आप अपने मनमें धारण करो॥

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रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवंत गह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥
माल्यवान्‌की यह बात सुनकर रावणने कहा कि हे राक्षसो! ये दोनों नीच शत्रुकी बड़ाई करते हैं, तुममेंसे कोई भी उनको यहां से निकाल नहीं देते, यह क्या बात है॥
तब माल्यवान् तो उठकर अपने घरको चला गया. और बिभीषणने हाथ जोड़कर फिर कहा॥

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सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
कि हे नाथ! वेद और पुरानोमें ऐसा कहा है कि सुबुद्धि और कुबुद्धि सबके मनमें रहती है। जहा सुमति है, वहा संपदा है. आर जहा कुबुद्धि है वहां विपत्ति॥

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तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥
हे रावण! आपके हृदयमें कुबुद्धि आ बसी है, इसीसे आप हित और अनहितको. विपरीत मानते हो की जिससे शत्रुको प्रीति होती है॥
जो राक्षसोंके कुलकी कालरात्रि है, उस सीतापर आपकी बहुत प्रीति हैं यह कुबुद्धि नहीं तो और क्या हे॥

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दोहा (Doha – Sunderkand)

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥40॥
हे तात में चरण पकडकर आपसे प्रार्थना करता हूं सो मेरी प्रार्थना अंगीकार करो। आप सीता रामचंद्रजीको दे दो, जिससे आपका बहुत भला होगा ॥40॥

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विभीषण का अपमान

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥
सयाने बिभीषणने नीतिको कहकर वेद और पुराणके संमत वाणी कही॥
जिसको सुनकर रावण गुस्सा होकर उठ खड़ा हुआ और बोला कि हे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गयी दीखती है॥

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जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥
हे नीच! सदा तू जीविका तो मेरी पाता है और शत्रुका पक्ष सदा अच्छा लगता है॥
हे दुष्ट! तू यह नही कहता कि जिसको हमने अपने भुजबलसे नहीं जीता ऐसा जगत्‌में कौन है? ॥

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मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा॥
हे शठ मेरी नगरीमें रहकर जो तू तपस्वीसे प्रीति करता है तो हे नीच! उससे जा मिल और उसीसे नीतिका उपदेश कर॥
ऐसे कहकर रावणने लातका प्रहार किया, परंतु बिभीषणने तो इतने परभी वारंत्रार पैर ही पकड़े॥

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उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥
शिवजी कहते हैं, है पार्वती! सत्पुरुषोंकी यही बड़ाई है कि बुरा करनेवालों की भलाई ही सोचते है और करते हैं॥
विभीषण ने कहा, हे रावण! आप मेरे पिताके बराबर हो इस वास्ते आपने जो मुझको मारा वह ठीक ही है, परंतु आपका भला तो रामचन्द्रजीके भजन से ही होगा॥

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सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥
ऐसे कहकर बिभीषण अपने मंत्रियोंको संग लेकर आकाशमार्ग गया और जाते समय सबको सुनाकर ऐसे कहता गया॥

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दोहा (Doha – Sunderkand)

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥41॥
कि हे प्रभु! रामचन्द्रजी सत्यप्रतिज्ञ है और तेरी सभा कालके आधीन है। और में अब रामचन्द्रजीके शरण जाता हूँ सो मुझको अपराध मत लगाना ॥41॥

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विभीषण का प्रभु श्रीरामकी शरण के लिए प्रस्थान

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी॥
जिस वक़्त विभीषण ऐसे कहकर लंकासे चले उसी समय तमाम राक्षस आयुहीन हो गये॥
महादेवजीने कहा कि हे पार्वती! साधू पुरुषोकी अवज्ञा करनी ऐसी ही बुरी है कि वह तुरंत तमाम कल्याणको नाश कर देती है॥

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रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं॥
रावणने जिस समय बिभीषणका परित्याग किया उसी क्षण वह मंदभागी विभवहीन हो गया॥
बिभीषण मनमें अनेक प्रकारके मनोरथ करते हुए आनंदके साथ रामचन्द्रजीके पास चला॥

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देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषनारी।
दंडक कानन पावनकारी॥
विभीषण मनमें विचार करने लगा कि आज जाकर मैं रघुनाथजीके भक्तलोगोंके सुखदायी अरुण (लाल वर्ण के सुंदर चरण) और सुकोमल चरणकमलोंके दर्शन करूंगा॥
कैसे हे चरणकमल कि जिनको परस कर (स्पर्श पाकर) गौतम ऋषिकी स्त्री (अहल्या) ऋषिके शापसे पार उतरी, जिनसे दंडक वन पवित्र हुआ है॥

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जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥
जिनको सीताजी अपने हृदयमें सदा लगाये रहतीं है. जो कपटी हरिण ( मारीच राक्षस) के पीछे दौड़े॥
रूप हृदयरूपी सरोवर भीतर कमलरूप हैं, उन चरणोको जाकर मैं देखूंगा। अहो! मेरा बड़ा भाग्य हे॥

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दोहा (Doha – Sunderkand)

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥42॥
जिन चरणोकी पादुकाओमें भरतजी रातदिन मन लगाये है, आज मैं जाकर इन्ही नेत्रोसे उन चरणोंको देखूंगा ॥42॥

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