Sunderkand – 15
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥
वानरोंने बिभीषणको आते देखकर जाना कि यह कोई शत्रुका दूत है॥
[dhbr]
समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई॥
तब सुग्रीवने जाकर रामचन्द्रजीसे कहा कि हे प्रभु! रावणका भाई आपसे मिलनेको आया है॥
[dhbr]
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया॥
राक्षसोंकी माया जाननेमें नहीं आ सकती। इसी बास्ते यह नहीं कह सकते कि यह मनोवांछित रूप धरकर यहां क्यों आया है?॥
[dhbr]
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥
तब रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा! तुमने यह नीति बहुत अच्छी बिचारी परंतु मेरा पण शरणागतोंका भय मिटानेका है॥
[dhbr]
सरनागत बच्छल भगवाना॥
[dhbr]
दोहा (Doha – Sunderkand)
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥43॥
[dhbr]
विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
यह जीव जब मेरे सन्मुख हो जाता है तब मैं उसके करोड़ों जन्मोंके पापोको नाश कर देता हूं॥
[dhbr]
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥
हे सुग्रीव! जो पुरुष (वह रावण का भाई) दुष्टहृदय होगा क्या वह मेरे सत्पर आ सकेगा? कदापि नहीं॥
[dhbr]
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥
कदाचित् रावणने इसको भेद लेनेके लिए भेजा होगा, फिर भी हे सुग्रीव! हमको उसका न तो कुछ भय है और न किसी प्रकारकी हानि है॥
[dhbr]
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥
और उनमेंसे भयभीत होकर जो मेरे शरण आजायगा उसको तो में अपने प्राणोंके बराबर रखूँगा॥
[dhbr]
दोहा (Doha – Sunderkand)
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥44॥
[dhbr]
विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता॥
विभीषणने नेत्रोंको आनन्द देनेवाले उन दोनों भाइयोंको दूर ही से देखा॥
[dhbr]
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥
श्रीरघुनाथजीका स्वरूप कैसा है जिसमें लंबी भुजा है, कमलसे लालनेत्र हैं। मेघसा सधन श्याम शरीर है, जो शरणागतोंके भयको मिटानेवाला है॥
[dhbr]
आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता॥
उस स्वरूपका दर्शन होतेही विभीषणको नेत्रोंमें जल आ गया। शरीर अत्यंत पुलकित हो गया, तथापि उसने मनमें धीरज धरकर ये सुकोमल वचन कहे॥
[dhbr]
निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा॥
स्वभावसेही पाप मुझको प्रिय लगता है, और यह मेरा तामस शरीर है सो यह बात ऐसी है कि जैसे उल्लूका अंधकारपर सदा स्नेह रहता है। ऐसे मेरे पाप पर प्यार है॥
[dhbr]
दोहा (Doha – Sunderkand)
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥45॥