सुंदरकाण्ड - 15

Sunderkand – 15

Sunderkand – 15

<<<< Continued from Sunderkand – 14
For Sunderkand Chapters List, Click >> सुंदरकाण्ड – Index

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥
यिभीषण इस प्रकार प्रेमसहित अनेक प्रकारके विचार करते हुए तुरंत समुद्रके इस पार आए॥
वानरोंने बिभीषणको आते देखकर जाना कि यह कोई शत्रुका दूत है॥

[dhbr]

ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई॥
वानर उनको वही रखकर सुग्रीवके पास आये और जाकर उनके सब समाचार सुग्रीवको सुनाये॥
तब सुग्रीवने जाकर रामचन्द्रजीसे कहा कि हे प्रभु! रावणका भाई आपसे मिलनेको आया है॥

[dhbr]

कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया॥
तब रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा! तुम्हारी क्या राय है (तुम क्या समझते हो)? तब सुग्रीवने रामचन्द्रजीसे कहा कि हे नरनाथ! सुनो,॥
राक्षसोंकी माया जाननेमें नहीं आ सकती। इसी बास्ते यह नहीं कह सकते कि यह मनोवांछित रूप धरकर यहां क्यों आया है?॥

[dhbr]

भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥
मेरे मनमें तो यह जँचता है कि यह शठ हमारा भेद लेने को आया है। इस वास्ते इसको बांधकर रख देना चाहिये॥
तब रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा! तुमने यह नीति बहुत अच्छी बिचारी परंतु मेरा पण शरणागतोंका भय मिटानेका है॥

[dhbr]

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना॥
रामचन्द्रजीके वचन सुनकर हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ कि भगवान् सच्चे शरणागतवत्सल हैं (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करनेवाले)॥

[dhbr]

दोहा (Doha – Sunderkand)

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥43॥
कहा है कि जो आदमी अपने अहितको विचार कर शरणागतको त्याग देते हैं, उन मनुष्योको पामर (पागल) और पापरूप जानना चाहिये क्योंकि उनको देखनेहीसे हानि होती है ॥43॥

[dhbr]

विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
प्रभुने कहा कि चाहे कोई महापापी होवे अर्थात् जिसको करोड़ ब्रह्महत्याका पाप लगा हुआ होवे और वह भी यदि मेरे शरण चला आवे तो मै उसको किसी कदर छोंड़ नहीं सकता॥
यह जीव जब मेरे सन्मुख हो जाता है तब मैं उसके करोड़ों जन्मोंके पापोको नाश कर देता हूं॥

[dhbr]

पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥
पापी पुरुषोंका यह सहज स्वभाव है कि उनको किसी प्रकारसे मेरा भजन अच्छा नहीं लगता॥
हे सुग्रीव! जो पुरुष (वह रावण का भाई) दुष्टहृदय होगा क्या वह मेरे सत्पर आ सकेगा? कदापि नहीं॥

[dhbr]

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥
हे सुग्रीव! जो आदमी निर्मल अंतःकरणवाला होगा, वही मुझको पावेगा क्योंकि मुझको छल, छिद्र और कपट कुछ भी अच्छा नहीं लगता॥
कदाचित् रावणने इसको भेद लेनेके लिए भेजा होगा, फिर भी हे सुग्रीव! हमको उसका न तो कुछ भय है और न किसी प्रकारकी हानि है॥

[dhbr]

जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥
क्योंकि जगत्‌में जितने राक्षस है, उन सबोंको लक्ष्मण एक क्षणभरमें मार डालेगा॥
और उनमेंसे भयभीत होकर जो मेरे शरण आजायगा उसको तो में अपने प्राणोंके बराबर रखूँगा॥

[dhbr]

दोहा (Doha – Sunderkand)

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥44॥
हँसकर कृपानिधान श्रीरामने कहा कि हे सुग्रीव! चाहो वह शुद्ध मनसे आया हो अथवा भेदबुद्धि विचारकर आया हो, दोनो ही तरहसे इसको यहां ले आओ। रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर अंगद और हनुमान् आदि सब बानर हे कृपालु! आपका. जय हो ऐसे कहकर चले ॥44॥

[dhbr]

विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता॥
वे वानर आदरसहित विभीषणको अपने आगे लेकर उस स्थानको चले कि जहां करुणानिधान श्री रघुनाथजी विराजमान थे॥
विभीषणने नेत्रोंको आनन्द देनेवाले उन दोनों भाइयोंको दूर ही से देखा॥

[dhbr]

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥
फिर वह छविके धाम श्रीरामचन्द्रजीको देखकर पलकोको रोककर एकटक देखते खड़े रहे॥
श्रीरघुनाथजीका स्वरूप कैसा है जिसमें लंबी भुजा है, कमलसे लालनेत्र हैं। मेघसा सधन श्याम शरीर है, जो शरणागतोंके भयको मिटानेवाला है॥

[dhbr]

सघ कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता॥
जिसके सिंहकेसे कंधे है, विशाल वक्षःस्थल शोभायमान है, मुख ऐसा है कि जिसकी छविको देखकर असंख्य कामदेव मोहित हो जाते हैं॥
उस स्वरूपका दर्शन होतेही विभीषणको नेत्रोंमें जल आ गया। शरीर अत्यंत पुलकित हो गया, तथापि उसने मनमें धीरज धरकर ये सुकोमल वचन कहे॥

[dhbr]

नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा॥
कि हे देवताओंके पालक! मेरा राक्षसोंके वंशमें तो जन्म है और हे नाथ! मैं रावणका भाई॥
स्वभावसेही पाप मुझको प्रिय लगता है, और यह मेरा तामस शरीर है सो यह बात ऐसी है कि जैसे उल्लूका अंधकारपर सदा स्नेह रहता है। ऐसे मेरे पाप पर प्यार है॥

[dhbr]

दोहा (Doha – Sunderkand)

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥45॥
तथापि हे प्रभु! हे भय और संकट मिटानेवाले! मै कानोंसे आपका सुयश सुनकर आपके शरण आया हूँ। सो हे आर्ति (दुःख) हरण हारे! हे शरणागतोंको सुख देनेवाले प्रभु! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ॥45॥

Next.. (आगे पढें…..) >> Sunderkand – 16

For next page of Sunderkand, please visit >>
Click – Sunderkand – 16