Sunderkand – 17
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विभीषण की भगवान् श्रो रामसे प्रार्थना
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥
हे लंकेश (लंकापति)! सुनो, आपमें सब गुण है और इसीसे आप मुझको अतिशय प्यारें लगते हो॥
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर तमाम वानरोंके झुंड कहने लगे कि हे कृपाके पुंज! आपकी जय हो॥
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर तमाम वानरोंके झुंड कहने लगे कि हे कृपाके पुंज! आपकी जय हो॥
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सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥
नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥
ओर विभीषणभी प्रभुकी बाणीको सुनता हुआ उसको कर्णामृतरूप जानकर तृप्त नहीं होता था॥
और वारंवार रामचन्द्वजीके चरणकमल धरकर ऐसा आल्हादित हुआ कि वह अपार प्रेम हृदयके अंदर नहीं समाया॥
और वारंवार रामचन्द्वजीके चरणकमल धरकर ऐसा आल्हादित हुआ कि वह अपार प्रेम हृदयके अंदर नहीं समाया॥
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सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥
इस दशाको पहुँच कर बिभीषणने कहा कि हे देव! चराचरसहित संसारके (चराचर जगतके) स्वामी! हे शरणागतोंके पालक! हे हृदयके अंतर्यामी! सुनिए॥
पहले मेरे जो कुछ वासना थी वह भी आपके चरणकमलकी प्रीतिरूप नदीसे बह गई॥
पहले मेरे जो कुछ वासना थी वह भी आपके चरणकमलकी प्रीतिरूप नदीसे बह गई॥
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अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥
देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥
हे कृपालू! अब आप दया करके मुझको आपकी वह पावन करनहारी भक्ति दीजिए कि जिसको महादेवजी सदा धारण करते हैं॥
रणधीर रामचन्द्रजीने एवमस्तु ऐसे कहकर तुरत समुद्रका जल मँगवाया॥
रणधीर रामचन्द्रजीने एवमस्तु ऐसे कहकर तुरत समुद्रका जल मँगवाया॥
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जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥
और कहा कि हे सखा! यद्यपि तेरे किसी बातकी इच्छा नहीं है तथापि जगत्में मेरा दर्शन अमोघ है अर्थात् निष्फल नही है॥ ऐसे कहकर प्रभुने बिभीषणके राजतिलक कर दिया. उस समय आकाशमेंसे अपार पुष्पोंकी वर्षा हुई॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥49(क)॥
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥49(क)॥
रावणका क्रोध तो अग्निके समान है और उसका श्वास प्रचंड पवनके तुल्य है। उससे जलते हुए विभीषणको बचाकर प्रभुने उसको अखंड राज दिया ॥49(क)॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥49(ख)॥
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥49(ख)॥
महादेवने दश माथे देनेपर रावणको जो संपदा दी थी वह संपदा कम समझकर रामचन्द्रजीने बिभीषणको सकुचते हुए दी ॥49(ख)॥
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समुद्र पार करने के लिए विचार
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥
ऐसे प्रभुको छोड़कर जो आदमी दूसरेको भजते हैं वे मनुष्य बिना सींग पूंछके पशु हैं॥
प्रभुने बिभीषणको अपना भक्त जानकर जो अपनाया, यह प्रभुका स्वभाव सब वानरोंको अच्छा लगा॥
प्रभुने बिभीषणको अपना भक्त जानकर जो अपनाया, यह प्रभुका स्वभाव सब वानरोंको अच्छा लगा॥
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पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक॥
सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक॥
प्रभु तो सदा सर्वत्र, सबके घटमें रहनेवाले (सबके हृदय में बसनेवाले), सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सर्वरहित और सदा उदासीन ही हैं॥
राक्षसकुलके संहार करनेवाले, नीतिको पालनेवाले, मायासे मनुष्यमूर्ति (कारण से भक्तों पर कृपा करने के लिए मनुष्य बने हुए), श्रीरामचन्द्रजीने सब मंत्रियोंसे कहा॥
राक्षसकुलके संहार करनेवाले, नीतिको पालनेवाले, मायासे मनुष्यमूर्ति (कारण से भक्तों पर कृपा करने के लिए मनुष्य बने हुए), श्रीरामचन्द्रजीने सब मंत्रियोंसे कहा॥
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सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥
कि हे लंकेश (लंकापति विभीषण)! हे वानरराज! हे वीर पुरुषो सुनो, अब इस गंभीर समुद्रको पार कैसे उतरें? वह युक्ति निकालो॥
क्योंकि यह समुद्र सर्प, मगर और अनेक जातिकी मछलियोंसे व्याप्त हो रहा है, बड़ा अथाह है, इसीसे सब प्रकारसे मुझको तो दुस्तर (कठिन) मालूम होता है॥
क्योंकि यह समुद्र सर्प, मगर और अनेक जातिकी मछलियोंसे व्याप्त हो रहा है, बड़ा अथाह है, इसीसे सब प्रकारसे मुझको तो दुस्तर (कठिन) मालूम होता है॥
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कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई॥
कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई॥
उसवक्त लंकेश अर्थात् विभीषणने कहा कि हे रघुनाथ! सुनो, आपके बाण ऐसे हैं कि जिनसे करोडो समुद्र सूख जाए, तब इस समुद्रका क्या भार है॥
तथापि नीतिमें ऐसा कहा है कि पहले साम वचनोंसे काम लेना चाहिये, इसवास्ते समुद्रके पास पधार कर आप विनती करो॥
तथापि नीतिमें ऐसा कहा है कि पहले साम वचनोंसे काम लेना चाहिये, इसवास्ते समुद्रके पास पधार कर आप विनती करो॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥50॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥50॥
बिभीषण कहता है कि हे प्रभु! यह समुद्र आपका कुलगुरु है। सो विचार कर अवश्य उपाय कहेगा और उपायको धरकर ये वानर और रीछ बिना परिश्रम समुद्रके पार हो जाएँगे ॥50॥
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समुद्र पार करने के लिए विचार
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
सखा कही तुम्ह नीति उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा॥
करिअ दैव जौं होइ सहाई॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा॥
बिभीषणकी यह बात सुनकर रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा! तुमने यह उपाय तो बहुत अच्छा बतलाया और हम इस उपायको करेंगे भी, परंतु यदि दैव सहाय होगा तो सफल होगा॥
यह सलाह लक्ष्मणके मनमें अच्छी नही लगी अतएव रामचन्द्रजीके वचन सुनकर लक्ष्मणने बड़ा दुख पाया॥
यह सलाह लक्ष्मणके मनमें अच्छी नही लगी अतएव रामचन्द्रजीके वचन सुनकर लक्ष्मणने बड़ा दुख पाया॥
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नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा॥
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा॥
और लक्ष्मणने कहा कि हे नाथ! दैवका क्या भरोसा है? आप तो मनमें क्रोध लाकर समुद्रको सुखा दीजिये॥
दैवपर भरोसा रखना यह तो कायर पुरुषोंके मनका एक आधार है; क्योंकि वेही आलसी लोग दैव करेगा सो होगा ऐसा विचार कर दैव दैव करके पुकारते रहते हैं॥
दैवपर भरोसा रखना यह तो कायर पुरुषोंके मनका एक आधार है; क्योंकि वेही आलसी लोग दैव करेगा सो होगा ऐसा विचार कर दैव दैव करके पुकारते रहते हैं॥
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सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई॥
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई॥
लक्ष्मणके ये वचन सुनकर प्रभुने हँसकर कहा कि हे भाई! मैं ऐसेही करूंगा पर तू मनमे कुछ धीरज धर॥
प्रभु लक्ष्मणको ऐसे कह समझाय बुझाय समुद्रके निकट पधारे॥
प्रभु लक्ष्मणको ऐसे कह समझाय बुझाय समुद्रके निकट पधारे॥
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प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए॥
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए॥
और प्रथमही प्रभुने जाकर समुद्रको प्रणाम किया और फिर कुश बिछा कर उसके तटपर विराजे॥
जब बिभीषण रामचन्द्रजीके पास चला आया तब पीछेसे रावणने अपना दूत भेजा॥
जब बिभीषण रामचन्द्रजीके पास चला आया तब पीछेसे रावणने अपना दूत भेजा॥
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दोहा (Doha – Sunderkand)
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥51॥
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥51॥
उस दूतने कपटसे वानरका रूप धरकर वहांका तमाम हाल देखा. तहां प्रभुका शरणागतोंपर अतिशय स्नेह देखकर उसने अपने मनमें प्रभुके गुणोंकी बड़ी सराहना की ॥51॥