सुंदरकाण्ड - 20

Sunderkand – 20

Sunderkand – 20

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समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
हे लक्ष्मण! धनुष बाण लाओ। क्योंकि अब इस समुद्रको बाणकी आगसे सुखाना होगा॥
देखो, इतनी बातें सब निष्फल जाती हैं। शठके पास विनय करना, कुटिल आदमीसे प्रीति रखना, स्वाभाविक कंजूस आदमीके पास सुन्दर नीतिका कहना॥

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ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा॥
ममतासे भरे हुए जनके पास ज्ञानकी बात कहना, अतिलोभीके पास वैराग्यका प्रसंग चलाना॥
क्रोधीके पास समताका उपदेश करना, कामी (लंपट) के पास भगवानकी कथाका प्रसंग चलाना और ऊसर भूमिमें बीज बोना ये सब बराबर है॥

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अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥
ऐसे कहकर रामचन्द्रजीने अपना धनुष चढ़ाया। यह रामचन्द्रजीका मत लक्ष्मणके मनको बहुत अच्छा लगा॥
प्रभुने इधर तो धनुषमें विकराल बाणका सन्धान किया और उधर समुद्रके हृदयके बीच संतापकी ज्वाला उठी॥

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मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना॥
मगर, सांप, और मछलियां घबरायीं और समुद्रने जाना कि अब तो जलजन्तु जलने है॥
तब वह मानको तज, ब्राह्मणका स्वरूप धर, हाथमें अनेक मणियोंसे भरा हुआ कंचनका थार ले बाहर आया॥

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दोहा (Doha – Sunderkand)

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥58॥
काकभुशुंडिने कहा कि हे गरुड़! देखा, केला काटनेसेही फलता है। चाहो दूसरे करोडों उपाय करलो और ख़ूब सींच लो, परंतु बिना काटे नहीं फलता। ऐसेही नीच आदमी विनय करनेसे नहीं मानता किंतु डाटने से ही नमता है ॥58॥

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समुद्र की श्री राम से विनती

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
समुद्रने भयभीत होकर प्रभुके चरण पकड़े और प्रभुसे प्रार्थना की कि हे प्रभु मेरे सब अपराध क्षमा करो॥
हे नाथ! आकाश, पवन, अग्रि, जल, और पृथ्वी इनकी करणी स्वभावहीसे जड़ है॥

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तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥
और सृष्टिके निमित्त आपकीही प्रेरणासे मायासे ये प्रकट हुए है, सो यह बात सब ग्रंथोंमें प्रसिद्ध हे॥
हे प्रभु! जिसको स्वामीकी जैसी आज्ञा होती है वह उसी तरह रहता है तो सुख पाता है॥

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प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥
हे प्रभु! आपने जो मुझको शिक्षा दी, यह बहुत अच्छा किया; परंतु मर्यादा तो सब आपकी ही बांधी हुई है॥

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प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥
हे प्रभु! मैं आपके प्रतापसे सूख जाऊंगा और उससे कटक भी पार उतर जाएगा। परंतु इसमें मेरी महिमा घट जायगी॥
और प्रभुकी आज्ञा अपेल (अर्थात अनुल्लंघनीय – आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) है। सो यह बात वेदमें गायी है। अब जो आपको जचे वही आज्ञा देवें सो मै उसके अनुसार शीघ्र करूं॥

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दोहा (Doha – Sunderkand)

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥59॥
समुद्रके ऐसे अतिविनीत वचन सुनकर, मुस्कुरा कर, प्रभुने कहा कि हे तात! जैसे यह हमारा वानरका कटक पार उतर जाय वैसा उपाय करो ॥59॥

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चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर समुद्रने कहा कि हे नाथ! नील और नल ये दोनों भाई है। नलको बचपनमें ऋषियोंसे आशीर्वाद मिला हुआ है॥
इस कारण हे प्रभु! नलका छुआ हुआ भारी पर्वत भी आपके प्रतापसे समुद्रपर तैर जाएगा॥
(नील और नल दोनो बचपनमें खेला करते थे। सो ऋषियोंके आश्रमोंमें जाकर जिस समय मुनिलोग शालग्रामजीकी पूजा कर आख मूंद ध्यानमें बैठते थे, तब ये शालग्रामजीको लेकर समुद्रमें फेंक देते थे। इससे ऋषियोंने शाप दिया कि नलका डाला हूआ पत्थर नहीं डुबेंगा। सो वही शाप इसके वास्ते आशीर्वादात्मक हुआ।)

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मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥
हे प्रभु! मुझसे जो कुछ बन सकेगा वह अपने बलके अनुसार आपकी प्रभुताकों हदयमें रखकर मै भी सहाय करूंगा॥
हे नाथ! इस तरह आप समुद्रमें सेतु बांध दीजिये कि जिसको विद्यमान देखकर त्रिलोकीमें लोग आपके सुयशको गाते रहेंगे॥

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एहि सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥
हे नाथ! इसी बाणसे आप मेरे उत्तर तटपर रहनेवाले पापके पुंज दुष्टोंका संहार करो॥
ऐसे दयालु रणधीर श्रीरामचन्द्रजीने सागरके मनकी पीड़ा को जानकर उसको तुरंत हर लिया॥

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देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥
समुद्र रामचन्द्रजीके अपरिमित (अपार) बलको देखकर आनंदपूर्वक सुखी हुआ॥
समुद्रने सारा हाल रामचन्द्रजीको कह सुनाया, फिर चरणोंको प्रणाम कर अपने धामको सिधारा॥

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दोहा (Doha – Sunderkand)

छं० – निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥
समुद्र तो ऐसे प्रार्थना करके अपने घरको गया। रामचन्द्रजीके भी मनमें यह समुद्रकी सलाह भा गयी।
तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुग के पापों को हरनेवाला यह रामचन्द्रजीका चरित मेरी जैसी बुद्धि है वैसा मैंने गाया है; क्योंकि रामचन्द्रजीके गुणगाण (गुणसमूह) ऐसे हैं कि वे सुखके तो धाम हैं, संशयके मिटानेवाले है और विषाद (रंज) को शांत करनेवाले है सो जिनका मन पवित्र है और जो सज्जन पुरुष है, वे उन चरित्रोंको सब आशा और सब भरोसोंको छोड़ कर गाते हैं और सुनते हैं॥

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दोहा (Doha – Sunderkand)

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥60॥
सर्व प्रकारके सुमंगल देनेवाले रामचन्द्रजीके गुणोंका जो मनुष्य गान करते है और आदरसहित सुनते हैं वे लोग संसारसमुद्रको बिना नाव पार उतर जाते हें ॥60॥

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इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के समस्त पापों का नाश करनेवाले श्री रामचरितमानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।

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