<<<< सुंदरकाण्ड 2 (Sunderkand – 2)
सुंदरकांड प्रसंग की लिस्ट (Sunderkand – Index)
सपूर्ण सुंदरकांड पाठ – एक पेज में
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हनुमानजी की पूँछ में राक्षसों द्वारा आग लगाने का प्रसंग
रावण हनुमानजी की पूँछ में आग लगाने का हुक्म देता है
[expand]
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई।
देखेउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥
[/expand]
जब यह वानर पूंछहीन होकर (बिना पूँछ का होकर)
अपने मालिकके पास जायेगा,
तब अपने स्वामीको यह ले आएगा॥
इस वानरने जिसकी अतुलित बढाई की है,
भला उसकी प्रभुताको मैं देखूं तो सही कि वह कैसा है?॥
राक्षस हनुमानजी की पूँछ में आग लगाने की तैयारी करते है
[expand]
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥2॥
[/expand]
रावनके ये वचन सुनकर हनुमानजी मनमें मुस्कुराए और
मनमें सोचने लगे कि मैंने जान लिया है
कि इस समय सरस्वती सहाय हुई है।
- क्योंकि इसके मुंहसे रामचन्द्रजीके आनेका समाचार स्वयं निकल गया॥
तुलसीदासजी कहते है कि
वे राक्षसलोग रावणके वचन सुनकर
वही तैयारी करने लगे
अर्थात तेलसे भिगो भिगोकर कपडे
उनकी पूंछमें लपेटने लगे॥
हनुमानजी पूँछ लम्बी बढ़ा देते है
[expand]
रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥
[/expand]
उस समय हनुमानजीने ऐसा खेल किया कि
अपनी पूंछ इतनी लंबी बढ़ा दी कि
जिसको लपेटने के लिये नगरीमें कपडा, घी व तेल कुछ भी बाकी न रहा॥
नगरके जो लोग तमाशा देखनेको वहां आये थे,
वे सब बहुत हँसते हैं॥
राक्षस हनुमानजी की पूँछ में आग लगा देते है
[expand]
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघु रुप तुरंता॥4॥
[/expand]
अनेक ढोल बज रहे हे, सबलोग ताली दे रहे हैं,
इस तरह हनुमानजीको नगरीमें सर्वत्र फिराकर
फिर उनकी पूंछमें आग लगा दी॥
हनुमानजीने जब पूंछमें आग जलती देखी
तब उन्होने तुरंत बहुत छोटा स्वरूप धारण कर लिया॥
हनुमानजी छोटा रूप धरकर बंधन से छूट जाते है
[expand]
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भई सभीत निसाचर नारीं॥5॥
[/expand]
और बंधन से निकलकर पीछे सोनेकी अटारियोंपर चढ़ गए,
जिसको देखतेही तमाम राक्षसोंकी स्त्रीयां भयभीत हो गयी॥
दोहा – 25
हनुमानजी का विशाल रूप और गर्जना
[expand]
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्ज कपि बढ़ि लाग अकास॥25॥
[/expand]
उस समय भगवानकी प्रेरणासे उनचासो पवन बहने लगे और
हनुमानजीने अपना स्वरूप ऐसा बढ़ाया कि
वह आकाशमें जा लगा
फिर अट्टहास करके बड़े जोरसे गरजे ॥25॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
लंका दहन का प्रसंग
हनुमानजी एक महल से दूसरे महल पर जाते है
[expand]
देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥
[/expand]
यद्यपि हनुमानजीका शरीर बहुत बड़ा था
परंतु शरीरमें बड़ी फुर्ती थी,
जिससे वह एक घरसे दूसरे घर पर चढ़ते चले जाते थे॥
जिससे तमाम नगर जल गया।
लोग सब बेहाल हो गये और
झपट कर बहुतसे विकराल कोटपर चढ़ गये॥
राक्षस लोग समझ जाते है की हनुमानजी देवता का रूप है
[expand]
तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहि अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई॥2॥
[/expand]
और सब लोग पुकारने लगे कि हे तात! हे माता!
अब इस समयमें हमें कौन बचाएगा॥
हमने जो कहा था कि यह वानर नहीं है,
कोई देवता वानरका रूप धरकर आया है।
सो देख लीजिये यह बात ऐसी ही है॥
लंका नगरी जल जाती है
[expand]
साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥
[/expand]
और यह नगर जो अनाथके नगरके समान जला है
सो तो साधुपुरुषोंका अपमान करनेंका फल ऐसाही हुआ करता है॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि
हनुमानजीने एक क्षणभरमें तमाम नगरको जला दिया.
केवल एक बिभीषणके घरको नहीं जलाया॥
सिर्फ विभीषण का घर क्यों नहीं जलता है?
[expand]
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥4॥
[/expand]
महादेवजी कहते है कि हे पार्वती!
जिन्होने अग्नि को बनाया है,
उस परमेश्वरका विभीषण भक्त था,
हनुमान् जी उन्ही के दूत है,
इस कारण से उसका घर नहीं जला॥
हनुमानजी ने उलट पलट कर (एक ओर से दूसरी ओर तक)
तमाम लंकाको जला कर फिर समुद्रके अंदर कूद पडे॥
दोहा – 26
हनुमानजी फिर से माता सीता के पास आते है
[expand]
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥26॥
[/expand]
अपनी पूंछको बुझाकर, श्रमको मिटाकर (थकावट दूर करके),
फिरसे छोटा स्वरूप धारण करके
हनुमानजी हाथ जोड़कर सीताजीके आगे आ खडे हुए ॥26॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
माता सीता का प्रभु राम के लिए संदेशा
सीताजी हनुमानजीको पहचान का चिन्ह देती है
[expand]
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥
[/expand]
और बोले कि हे माता!
जैसे रामचन्द्रजीने मुझको पहचानके लिये मुद्रिकाका निशान दिया था,
वैसे ही आपभी मुझको कुछ चिन्ह (पहचान) दो॥
तब सीताजीने अपने सिरसे उतार कर चूडामणि दिया।
हनुमानजीने बड़े आनंदके साथ वह ले लिया॥
सीताजी श्री राम के लिए संदेशा देती है
[expand]
कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी॥2॥
[/expand]
सीताजीने हनुमानजीसे कहा कि हे पुत्र!
मेरा प्रणाम कह कर प्रभुसे ऐसे कहना कि हे प्रभु!
यद्यपि आप सर्व प्रकारसे पूर्णकाम हो
(आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है)॥
हे नाथ! आप दीनदयाल हो,
दीनो (दुःखियो) पर दया करना आपका विरद है,
(और मै दीन हूँ)
अतः उस विरद को याद करके,
मेरे इस महासंकटको दूर करो॥
माता सीता का श्रीराम को संदेशा
[expand]
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥3॥
[/expand]
हे पुत्र । फिर इन्द्रके पुत्र जयंतकी कथा सुनाकर
प्रभुकों बाणोंका प्रताप समझाकर याद दिलाना॥
और कहना कि हे नाथ!
जो आप एक महीनेके अन्दर नहीं पधारोगे,
तो फिर आप मुझको जीवित नहीं पाएँगे॥
सीताजी को हनुमानजी के जाने का दुःख
[expand]
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥4॥
[/expand]
हे तात! कहना, अब मैं अपने प्राणोंको किस प्रकार रखूँ?
क्योंकि तुम भी अब जाने को कह रहे हो॥
तुमको देखकर मेरी छाती ठंढी हुई थी
परंतु अब तो फिर मेरे लिए वही दिन हैं और वही रातें हैं॥
दोहा – 27
हनुमानजी माता सीता को प्रणाम करते है
[expand]
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥27॥
[/expand]
हनुमानजीने सीताजीको (जानकी को) अनेक प्रकारसे समझाकर,
कई तरहसे धीरज दिया और
फिर उनके चरणकमलोंमें सिर नवाकर
वहांसे रामचन्द्रजीके पास रवाना हुए ॥27॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
हनुमानजी का लंका से वापस आना
हनुमानजी लंका से वापिस आते है
[expand]
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥
[/expand]
जाते समय हनुमानजीने ऐसी भारी गर्जना की,
कि जिसको सुनकर राक्षसियोंके गर्भ गिर गये॥
सपुद्रको लांघकर हनुमानजी समुद्रके इस पार आए।
और उस समय उन्होंने
किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सब बन्दरोंको सुनाया॥
[expand]
राका दिन पहूँचेउ हनुमन्ता।
धाय धाय कापी मिले तुरन्ता॥
[/expand]
हनुमानजीने लंकासे लौटकर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन वहां पहुंचे।
उस समय दौड़ दौड़ कर वानर बडी त्वराके साथ हनुमानजीसे मिले॥
हनुमानजी का तेज देखकर वानर हर्षित होते है
[expand]
हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥
[/expand]
हनुमानजीको देखकर सब वानर बहुत प्रसन्न हुए और
उस समय वानरोंने अपना नया जन्म समझा॥
हनुमानजीका मुख अति प्रसन्न और
शरीर तेजसे अत्यंत दैदीप्यमान देखकर
वानरोंने जान लिया कि हनुमानजी
रामचन्द्रजीका कार्य करके आए है॥
हनुमानजी के साथ सभी वानर श्री राम के पास जाते है
[expand]
मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा॥
[/expand]
और इसीसे सब वानर परम प्रेमके साथ
हनुमानजीसे मिले और अत्यन्त प्रसन्न हुए।
वे कैसे प्रसन्न हुए सो कहते हैं कि
मानो तड़पती हुई मछलीको पानी मिल गया॥
फिर वे सब सुन्दर इतिहास (वृत्तांत) पूंछते हुए और कहते हुए
आनंदके साथ रामचन्द्रजीके पास चले॥
सुग्रीव का प्रसंग
वानरों का मधुवन के फल खाना
[expand]
तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥
[/expand]
फिर उन सबोंने मधुवनके अन्दर आकर
युवराज अंगदके साथ वहां मीठे फल खाये॥
जब वहांके पहरेदार बरजने लगे
तब उनको मुक्कोसे ऐसा मारा कि वे सब वहांसे भाग गये॥
दोहा – 28
वन के रखवाले सुग्रीव से शिकायत करते है
[expand]
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥
[/expand]
उन सबोंने जाकर राजा सुग्रीवसे कहा कि हे राजा!
युवराज अंगदने वनका सत्यानाश कर दिया है।
यह समाचार सुनकर सुग्रीवको बड़ा आनंद आया
कि वे लोग प्रभुका काम करके आए हैं ॥28॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुग्रीव मन ही मन खुश होते है
[expand]
जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥
[/expand]
सुग्रीवको आनंद क्यों हुआ? उसका कारण कहते हैं।
सुग्रीवने मनमें विचार किया कि
जो उनको सीताजीकी खबर नहीं मिली होती,
तो वे लोग मधुवनके फल कदापि नहीं खाते॥
राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे।
इतनेमें समाजके साथ वे तमाम वानर वहां चले आये॥
सभी वानर सुग्रीव के पास आते है
[expand]
आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥
[/expand]
सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया।
और आकर उन सभीने नमस्कार किया
तब बड़े प्यारके साथ सुग्रीव उन सबसे मिले॥
सुग्रीवने सभीसे कुशल पूंछा तब उन्होंने कहा कि नाथ!
आपके चरण कुशल देखकर हम कुशल हैं और
जो यह काम बना है सो केवल रामचन्द्रजीकी कृपासे बना है॥
वानर सुग्रीव को हनुमानजी के कार्य के बारे में बताते है
[expand]
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥
[/expand]
हे नाथ! यह काम हनुमानजीने किया है।
यह काम क्या किया है मानो सब वानरोंके इसने प्राण बचा लिये हैं॥
यह बात सुनकर सुग्रीव उठकर फिर हनुमानजीसे मिले और
वानरोंके साथ रामचन्द्रजीके पास आए॥
वानरसेना प्रभु राम के पास जाती है
[expand]
राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥
[/expand]
वानरोंको आते देखकर रामचन्द्रजीके मनमें बड़ा आनन्द हुआ
कि ये लोग काम सिद्ध करके आ गये हैं॥
राम और लक्ष्मण ये दोनों भाई स्फटिक मणिकी शिलापर बैठे हुए थे।
वहां जाकर सब वानर दोनों भाइयोंके चरणोंमें गिर पड़े॥
दोहा – 29
सभी वानर भगवान् राम को प्रणाम करते है
[expand]
प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29॥
[/expand]
करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजी प्रीतिपूर्वक सब वानरोंसे मिले और
उनसे कुशल पूछा।
तब उन्होंने कहा कि हे नाथ!
आपके चरण कमलो के दर्शन पाने से
अब हम कुशल हें ॥29॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जाम्बवान और प्रभु श्री राम का संवाद
ईश्वर की कृपा से भक्त का निरंतर कुशल
[expand]
जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
[/expand]
उस समय जाम्बवान ने रामचन्द्रजीसे कहा कि
हे नाथ! सुनो,
आप जिसपर दया करते हो॥
उसके सदा सर्वदा शुभ और कुशल निरंतर रहते हें।
तथा देवता मनुष्य और मुनि सभी उसपर सदा प्रसन्न रहते हैं॥
भगवान् की कृपा का फल
[expand]
सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥
[/expand]
और वही विजयी (विजय करनेवाला), विनयी (विनयवाला) और
गुणोंका समुद्र होता है और
उसकी सुख्याति तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध रहती है॥
यह सब काम आपकी कृपासे सिद्ध हुआ हैं।
और हमारा जन्म भी आजही सफल हुआ है॥
जाम्बवान श्री राम को हनुमानजी के कार्य के बारें में बताते है
[expand]
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी॥)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
[/expand]
हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजीने जो काम किया है,
उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता॥
(वह कोई आदमी जो लाख मुखोंसे कहना चाहे,
तो भी वह कहा नहीं जा सकता)॥
हनुमानजीकी प्रशंसाके वचन और कार्य
जाम्बवानने रामचन्द्रजीको सुनाये॥
हनुमानजी और प्रभु श्री राम का संवाद
भगवान् राम हनुमानजी से माता सीता के बारें में पूछते है
[expand]
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
[/expand]
उन वचनोंको सुनकर दयालु श्रीरामचन्द्वजीने उठकर
हनुमानजीको अपनी छातीसे लगाया॥
और श्रीरामने हनुमानजीसे पूछा कि हे तात! कहो,
सीता किस तरह रहती है?
और अपने प्राणोंकी रक्षा वह किस तरह करती है?॥
दोहा – 30
हनुमानजी माता सीता के बारें में बताते है
[expand]
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30॥
[/expand]
हनुमानजीने कहा कि हे नाथ!
यद्यपि सीताजीको कष्ट तो इतना है
कि उनके प्राण एक क्षणभर न रहे।
परंतु सीताजीने आपके दर्शनके लिए
प्राणोंका ऐसा बंदोबस्त करके रखा है कि –
रात दिन अखंड पहरा देनेके वास्ते
आपके नामको तो उसने सिपाही बना रखा है
(आपका नाम रात-दिन पहरा देनेवाला है)।
और आपके ध्यानको कपाट बनाया है
(आपका ध्यान ही किवाड़ है)।
और अपने नीचे किये हुए नेत्रोंसे
जो अपने चरणकी ओर निहारती है
वह ताला है.
भगवान् का ध्यान किस प्रकार करें
अब उनके प्राण किस रास्ते बाहर निकलें ॥30॥
आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है. नेत्रो को अपने चरणो मे लगाए रहती है, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से?॥30॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
हनुमानजी प्रभु राम को सीताजी की चूड़ामणि देते है
[expand]
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥
[/expand]
और चलते समय मुझको यह चूड़ामणि दिया हे.
ऐसे कह कर हनुमानजीने वह चूड़ामणि रामचन्द्रजीको दे दिया।
तब रामचन्द्रजीने उस रत्नको लेकर अपनी छातीसे लगाया॥
तब हनुमानजीने कहा कि हे नाथ!
दोनो हाथ जोड़कर नेत्रोंमें जल भरकर
सीताजीने कुछ वचनभी कहे है सो सुनिये॥
सीताजी का प्रभु राम के लिए संदेशा
हनुमानजी श्री राम को सीताजी का संदेशा सुनाते है
[expand]
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
[/expand]
सीताजीने कहा है कि
लक्ष्मणजीके साथ प्रभुके चरण धरकर
मेरी ओरसे ऐसी प्रार्थना करना कि हे नाथ!
आप तो दीनबंधु और शरणागतोके संकटको मिटानेवाले हो॥
फिर मन, वचन और कर्मसे चरणोमें प्रीति रखनेवाली
मुझ दासीको आपने किस अपराधसे त्याग दिया है॥
माता सीता का संदेशा
[expand]
अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
[/expand]
हाँ, मेरा एक अपराध पक्का (अवश्य) हैं और
वह मैंने जान भी लिया है कि
आपसे वियोग होते ही मेरे प्राण नही निकल गये॥
परंतु हें नाथ! वह अपराध मेरा नहीं है, किन्तु नेत्रोका है;
क्योंकि जिस समय प्राण निकलने लगते है,
उस समय ये नेत्र हठ कर उसमें बाधा कर देते हैं
(अर्थात् केवल आपके दर्शनके लोभसे मेरे प्राण बने रहे हैं)॥
भगवानके दर्शन की प्यास
[expand]
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी॥
[/expand]
हे प्रभु! आपका विरह तो अग्नि है,
मेरा शरीर तूल (रुई) है और श्वास प्रबल वायु है।
अब इस सामग्रीके रहते
शरीर क्षणभरमें जल जाय इसमें कोई आश्चर्य नहीं॥
परंतु नेत्र अपने हितके लिए अर्थात् दर्शनके वास्ते
जल बहा बहा कर उस विरह की आग को शांत करते हैं,
इससे विरह की आग भी मेरे शरीरको जला नहीं पाती॥
सीताजी की लंका में स्थिति
[expand]
सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
[/expand]
हनुमानजी ने कहा कि हे दीनदयाल!
सीताकी विपत्ति ऐसी भारी है कि
उसको न कहना ही अच्छा है
(कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा)॥
दोहा – 31
सीताजी को प्रभु से विरह का दुःख
[expand]
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥
[/expand]
हे करुणानिधान! हे प्रभु! सीताजीके एक एक क्षण,
सौ सौ कल्पके समान व्यतीत होते हैं।
इसलिए जल्दी चलकर और अपने बाहुबलसे (भुजाओ के बल से)
दुष्टोंके दलको जीतकर उनको जल्दी ले आइए ॥31॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
प्रभुकी शरण में आये हुए को दुःख नहीं
[expand]
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥
[/expand]
सुखके धाम श्रीरामचन्द्रजी,
सीताजीके दुःखके समाचार सुन अति खिन्न हुए और
उनके कमलसे दोनों नेत्रोंमें जल भर आया॥
रामचन्द्रजीने कहा कि जिसने मन, वचन व कर्मसे मेरा शरण लिया है,
क्या स्वप्नमें भी उसको विपत्ति होनी चाहिये? कदापि नहीं॥
भगवान को भूलने पर मनुष्य को दुःख
[expand]
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥
[/expand]
हनुमानजीने कहा कि हे प्रभु!
मनुष्यकी यह विपत्ति तो वही (तभी) है,
जब यह मनुष्य आपका भजन स्मरण नही करता॥
हे प्रभु इस राक्षसकी कितनीसी बात है।
आप शत्रुको जीतकर सीताजीको ले आइये॥
रामभक्त वीर हनुमान की जय
प्रभु राम बजरंगबली की प्रशंसा करते है
[expand]
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
[/expand]
रामचन्द्रजीने कहा कि हे हनुमान!
सुनो, तेरे बराबर मेरे उपकार करनेवाला देवता,
मनुष्य और मुनि कोइ भी देहधारी नहीं है॥
हे हनुमान! में तुम्हारा क्या प्रत्युपकार (बदले में उपकार) करूं;
क्योंकि मेरा मन बदला देनेके वास्ते
सन्मुखही (मेरा मन भी तेरे सामने) नहीं हो सकता॥
रामभक्त हनुमान के प्रभु राम ऋणी
[expand]
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता॥
[/expand]
हे हनुमान! सुन, मेंने अपने मनमें विचार करके देख लिया है कि
मैं तुमसे उऋण नहीं हो सकता॥
देवताओ के रक्षक प्रभु श्री रामचन्द्रजी
ज्यों ज्यों वारंवार हनुमानजीकी ओर देखते है;
त्यों त्यों उनके नेत्रोंमें जल भर आता है और
शरीर पुलकित हो जाता है॥
दोहा – 32
हे प्रभु राम, हमारी रक्षा करो
[expand]
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥32॥
[/expand]
हनुमानजी प्रभुके वचन सुनकर और
प्रभुके मुखकी ओर देखकर मनमें परम हर्षित हो गए॥
और बहुत व्याकुल होकर कहा
हे भगवान्! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो
ऐसा कहते हुए चरणोंमे गिर पड़े ॥32॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
शिव के अंशावतार हनुमानजी की श्री राम भक्ति
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बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥
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यद्यपि प्रभु उनको चरणोंमेंसे बार-बार उठाना चाहते हैं,
परंतु हनुमान् प्रेममें ऐसे मग्न हो गए थे कि
वह उठना नहीं चाहते थे॥
कवि कहते है कि
रामचन्द्रजीके चरणकमलोंके बीच हनुमानजी सिर धरे है,
प्रभु का करकमल हनुमान् जी के सिर पर है,
इस बातको स्मरण करके महादेवकी भी वही दशा हो गयी
और प्रेममें मग्न हो गये;
क्योंकि हनुमान् रुद्रका अंशावतार है॥
श्री राम ने हनुमान जी को गले से लगाया
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सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा॥
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फिर महादेव अपने मनको सावधान करके
अति मनोहर कथा कहने लगे॥
महादेवजी कहते है कि हे पार्वती!
प्रभुने हनमान्कों उठाकर छातीसे लगाया और
हाथ पकड कर अपने बहुत नजदीक बिठाया॥
रामचन्द्रजी लंका दहन के बारें में पूछते है
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कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना॥
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और हनुमानसे कहा कि हे हनुमान! कहो,
वह रावणकी पाली हुई लंकापुरी, कि जो बड़ा बंका किला है,
उसको तुमने कैसे जलाया?॥
रामचन्द्रजीकी यह बात सुन उनको प्रसन्न जानकर
हनुमानजीने अभिमानरहित होकर यह वचन कहे कि॥
हनुमानजी लंका दहन के बारें में बताते है
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साखामग कै बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
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हे प्रभु! बानरका तो अत्यंत पराक्रम यही है कि
वृक्षकी एक डालसे दूसरी डालपर कूद जाय॥
परंतु जो मै समुद्रको लांघकर लंका में चला गया और
वहा जाकर मैंने लंका को जला दिया और
बहुतसे राक्षसोंको मारकर अशोक वनको उजाड़ दिया॥
सभी कार्य ईश्वर की कृपा से
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सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥
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हे प्रभु! यह सब आपका प्रताप है।
हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ नहीं है॥
दोहा – 33
भगवान् की कृपा से सब कुछ संभव
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ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥33॥
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हे प्रभु! आप जिस पर प्रसन्न हों, उसके लिए
कुछ भी असाध्य (कठिन) नहीं है।
आपके प्रतापसे रूई (जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है) बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है (अर्थात् असंभव भी संभव हो सकता है) ॥33॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
श्री राम और हनुमानजी का संवाद
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नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
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रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर हनुमानजीने कहा कि हे नाथ!
मुझे तो कृपा करके आपकी अनपायिनी (जिसमें कभी विच्छेद नहीं पडे ऐसी), निश्चल, कल्याणकारी और सुखदायी भक्ति दो॥
महादेवजीने कहा कि हे पार्वती!
हनुमानकी ऐसी परम सरल वाणी सुनकर प्रभुने कहा कि
हे हनुमान्! एवमस्तु’ (ऐसाही हो)
अर्थात् तुमको हमारी भक्ति प्राप्त हो॥
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उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
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हे पार्वती!
जिन्होंने रामचन्द्रजीके परम दयालु स्वभावको जान लिया है,
उनको रामचन्द्रजीकी भक्तिको छोंड़कर
दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता॥
यह हनुमान् और रामचन्द्रजीका संवाद
जिसके हृदयमें दृढ़ रीतिसे आ जाता है,
वह श्री रामचन्द्रजीकी भक्तिको अवश्य पा लेता है॥
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सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥
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प्रभुके ऐसे वचन सुनकर
तमाम वानरगणने पुकार कर कहा कि हे दयालू!
हे सुखके मूलकारण प्रभु!
आपकी जय हो, जय हो, जय हो॥
उस समय प्रभुने सुग्रीवको बुलाकर कहा कि हे सुग्रीव!
अब चलनेकी तैयारी करो॥
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अब बिलंबु केह कारन कीजे।
तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी॥
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अब विलम्ब क्यों किया जाता है।
अब तुम वानरोंको तुरंत आज्ञा क्यो नहीं देते हो॥
इस कौतुकको (भगवान की यह लीला) देखकर
देवताओंने आकाशसे बहुतसे फूल बरसाये और
फिर वे आनंदित होकर अपने अपने लोक को चल दिये॥
दोहा – 34
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कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥34॥
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रामचन्द्रजीकी आज्ञा होते ही
सुग्रीवने वानरोंके सेनापतियोंको बुलाया और
सुग्रीवकी आज्ञाके साथही वानर और रीछोके झुंड
कि जिनके अनके प्रकारके वर्ण हैं और
अतूलित बल हैं, वे वहां आये॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
श्री रामजी का वानरों की सेना के साथ समुद्र तट पर जाना
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प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
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महाबली वानर और रीछ वहां आकर गर्जना करते हैं और
रामचन्द्रजीके चरण कमलो मे सिर नवाते है, सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं॥
तमाम वानरॉकी सेनाको देखकर
कमलनयन प्रभुने कृपा दृष्टिसे उनकी ओर देखा॥
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राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
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प्रभुकी कृपादृष्टि पड़तेही
अर्थात राम कृपा का बल पाकर
तमाम वानर ऐसे बली और बड़े हो गये कि
मानों पंखवाले बड़े पर्वत तो नहीं है?॥
उस समय रामचन्द्रजीने आनंदित होकर प्रयाण किया.
तब नाना प्रकारके अच्छे और सुन्दर शुभ शकुन हुए॥
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जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥
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यह दस्तूर है कि जिसके सब मंगलमय होना होता है
(जिनकी कीर्ति सब मंगलों से पूर्ण है)
उसके प्रयाणके समय शगुनभी अच्छे होते है॥
प्रभुने प्रयाण किया उसकी खबर सीताजीको भी हो गई;
क्योंकि जिस समय प्रभुने प्रयाण किया
उस वक्त सीताजीके शुभसूचक बाएं अंग फड़कने लगे
(मानो कह रह है की श्री राम आ रहे हैं)॥
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जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥
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ओर जो जो शगुन सीताजीके अच्छे हुए,
वे सब रावणके बुरे शगुन हुए॥
इस प्रकार रामचन्द्रजीकी सेना रवाना हुई,
कि जिसके अन्दर असंख्यात वानर और रीछ गरज रहे है.
उस सेनाका वर्णन कौन कर सकता है?॥
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नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥
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नख ही जिनके शस्त्र है,
वे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलने वाले रीछ-वानर
पर्वतो और वृक्षो को धारण किए
कोई आकाश मार्ग से और
कोई पृथ्वी पर चले जा रहे है।
वानर व रीछ मार्गमें जाते हुए सिंहनाद कर रहे है.
जिससे दिग्गज हाथी डगमगाते हैं और चीत्कार करते हैं॥
छंद – Sunderkand
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चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥
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जब रामचन्द्रजीने प्रयाण किया
तब दिग्गज चिंघाड़ने लगे, पृथ्वी डगमगाने लगी,
पर्वत कांपने लगे, समुद्र खड़भड़ा गये,
सूर्य आनंदित हुआ कि हमारे वंशमें दुष्टोंको दंड देनेवाला पैदा हुआ।
देवता, मुनि, नाग व् किन्नर ये सब मन में हर्षित हुए
कि अब हमारे दुःख टल गए।
वानर विकट रीतिसे कटकटा रहे है,
कोटयानकोट बहुतसे योद्धा इधर उधर दौड़ रहे हैं और
रामचन्द्रजीके गुणसमूहो को (गुणगणोंको) गा रहे हैं कि
हे प्रबलप्रतापवाले राम! आपकी जय हो॥
छंद – Sunderkand
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सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥
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उस सेनाके अपार भारको शेषजी (सर्पराज शेष) स्वयं सह नहीं सकते
जिससे वारंवार मोहित होते हें और
अपने दाँतोंसे बार-बार कमठकी (कच्छप की) कठोर पीठको पकडे रहते है।
सो वह शोभा कैसी मालूम होती है कि
मानो रामचन्द्रजीके सुन्दर प्रयाणकी प्रस्थिति (प्रस्थान यात्रा) को परमरम्य जानकर
शेषजी कमठकी पीठरूप खप्परपर अपने दांतोसे लिख रहे हैं, कि
जिससे वह प्रस्थानका पवित्र संवत् च मिती सदा स्थिर बनी रहे,
जैसे कुएं बावली मंदिर आदि बनानेवाले
उसपर पत्थरमें प्रशस्ति खुदवाकर लगा देते है,
ऐसे शेषजी मानो कमठकी पीठपर प्रशस्तिही खोद रहे थे॥
Or
उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नही सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते (घबड़ा जाते) है और
पुनः पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतो से पकड़ते है।ऐसा करते (अर्थात् बार-बार दाँतो को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खीचते हुए) वे कैसे शोभा दे रहे है
मानो श्री रामचन्द्र जी की सुन्दर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर
उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हो॥2॥
दोहा – 35
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एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥35॥
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कृपाके भ्रंडार श्रीरामचन्द्रजी इस तरह जाकर समुद्रके तीरपर उतरे,
तब वीर रीछ और वानर जहां तहां वहुतसे फल खाने लगे ॥35॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
मंदोदरी और रावण का संवाद
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उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उवारा॥
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जबसे हनुमान् लंकाको जलाकर चले गए
तबसे वहां राक्षसलोग शंकासहित (भयभीत) रहने लगे॥
और अपने अपने घरमें सब विचार करने लगे कि
अब राक्षसकुल बचनेका नहीं है
(राक्षस कुल की रक्षा का कोई उपाय नहीं है)॥
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जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी॥
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हम लोग जिसके दूतके बलको भी कह नहीं सकते
उसके आनेपर फिर पुरका भला कैसे हो सकेगा (बुरी दशा होगी)॥
जिसके दूत का बल वर्णन नही किया जा सकता,
उसके स्वयं नगर मे आने पर कौन भलाई है
(हम लोगो की बड़ी बुरी दशा होगी) ॥
नगरके लोगोंकी ऐसी अति भयसहित वाणी सुनकर
मन्दोंदरी अपने मनमें बहुत घबरायी॥
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रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥
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और एकान्तमें आकर हाथ जोड़कर
पातिके चरणोंमे गिरकर नितिके रससे भरे हुए ये वचन बोली॥
हे कान्त! हरि भगवानसे जो आपके वैरभाव हैं
उसे छोड़ दीजिए।
मै जो आपसे कहती हूँ वह आपको अत्यंत हितकारी है,
सो इसको अपने चित्तमें धारण कीजिए॥
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समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
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भला अब उसके दूतके कामको तो देखो कि
जिसको नाम लेनेसे राक्षसियोंके गर्भ गिर जाते हैं॥
इसलिए हे कान्त! मेरा कहना तो यह है कि
जो आप अपना भला चाहो तो,
अपने मंत्रियोंको बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥
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तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
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जैसे शीतऋतु अर्थात् शिशिर ऋतुकी रात्रि (जाड़ेकी रात्रि) आनेसे
कमलोंके बनका नाश हो जाता हे,
ऐसे तुम्हारे कुलरूप कमलबनका संहार करनेके लिये
यह सीता शिशिर ऋतुकी रात्रिके समान आयी है॥
आपके कुल रूपी कमलो के वन को,
दुःख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान सीता आई है।
हे नाथ! सुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना महादेव और ब्रह्माजी के किए भी आपका भला नही हो सकता॥
दोहा – 36
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राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥36॥
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हे नाथ रामचन्द्रजीके बाण तो सर्पोके गणके (समूह) समान है और
राक्षससमूह मेंढकके झुंडके समान हैं।
सो वे इनका संहार नहीं करते
इससे पहले पहले आप यत्न करो और
जिस बातका हठ पकड़ रक्खा है
उसको छोड़कर उपाय कर लीजिए॥
जब तक वे इन्हे ग्रस नही लेते (निगल नही जाते)
तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिए॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
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