What is Shivling? (From Shivpuran)
श्री शिव महापुराण के विद्येश्वरसंहिता खंड में
शिवलिंग के बारें में विस्तार से जानकारी दी गई है।
शिव पुराण के अध्याय 5 से 9 में यह बताया गया है की
- शिवलिंग क्या है?
- शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे हुई?
- क्यों सिर्फ भगवान् शिव की ही
लिंग रूप और मूर्ति रूप में पूजा की जाती है और
किसी अन्य देवता की लिंग रूप में पूजा नहीं है और - महाशिवरात्रि में शिव लिंग पूजा का महत्व
शिवलिंग की पूजा का महत्व
सूतजी कहते हैं –
शौनक! जो श्रवण, कीर्तन और मनन –
इन तीनों साधनोंके अनुष्ठानमें समर्थ न हो,
वह भगवान् शंकरके लिंग
एवं मूर्तिकी स्थापना करके
नित्य उसकी पूजा करे,
तो संसार-सागरसे पार हो सकता है।
इस प्रकार शिवलिंग अथवा शिवमूर्तिमें
भगवान् शंकरकी पूजा करनेवाला पुरुष
श्रवणादि साधनोंका अनुष्ठान न करे तो भी
भगवान् शिवकी प्रसन्नतासे सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
पहलेके बहुत-से महात्मा पुरुष
लिंग तथा शिवमूर्तिकी पूजा करनेमात्रसे
भवबन्धनसे मुक्त हो चुके हैं।
सिर्फ भगवान् शिव की ही मूर्ति और लिंग रूप में पूजा क्यों?
ऋषियोंने पूछा –
मूर्तिमें ही सर्वत्र देवताओंकी पूजा होती है (लिंगमें नहीं),
परंतु भगवान् शिवकी पूजा सब जगह
मूर्तिमें और लिंगमें भी क्यों की जाती है?
सूतजीने कहा –
मुनीश्वरो!
तुम्हारा यह प्रश्न तो
बड़ा ही पवित्र और
अत्यन्त अद्भुत है।
इस विषयमें महादेवजी ही
वक्ता हो सकते हैं।
दूसरा कोई पुरुष कभी और
कहीं भी इसका प्रतिपादन नहीं कर सकता।
इस प्रश्नके समाधानके लिये
भगवान् शिवने जो कुछ कहा है और
उसे मैंने गुरुजीके मुखसे जिस प्रकार सुना है,
उसी तरह क्रमशः वर्णन करूँगा।
भगवान् शिव – निराकार और साकार
एकमात्र भगवान् शिव ही
ब्रह्मरूप होनेके कारण
“निष्कल” (निराकार) कहे गये हैं।
रूपवान् होनेके कारण
उन्हें “सकल” भी कहा गया है।
इसलिये वे सकल और
निष्कल दोनों हैं।
शिवके निष्कल – निराकार होनेके कारण ही
उनकी पूजाका आधारभूत लिंग भी
निराकार ही प्राप्त हुआ है।
अर्थात् शिवलिंग शिवके
निराकार स्वरूपका प्रतीक है।
इसी तरह शिवके सकल या साकार होनेके कारण
उनकी पूजाका आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता है
अर्थात् शिवका साकार विग्रह
उनके साकार स्वरूपका प्रतीक होता है।
- निराकार अर्थात –
- जिसका कोई आकार न हो, आकाररहित
- साकार अर्थात –
- जिसका आकार हो, आकारयुक्त
सकल और अकल
(समस्त अंग-आकारसहित साकार और
अंग-आकारसे सर्वथा रहित निराकार) रूप होनेसे ही वे
“ब्रह्म” शब्दसे कहे जानेवाले परमात्मा हैं।
यही कारण है कि
सब लोग लिंग (निराकार) और
मूर्ति (साकार) दोनोंमें ही
सदा भगवान् शिवकी पूजा करते हैं।
शिवसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे देवता हैं,
वे साक्षात् ब्रह्म नहीं हैं।
इसलिये कहीं भी उनके लिये
निराकार लिंग नहीं उपलब्ध होता।
शिवलिंग भगवान् शिवके निराकार स्वरूप का प्रतीक
पूर्वकालमें बुद्धिमान् ब्रह्मपुत्र सनतकुमार मुनिने
मन्दराचलपर नन्दिकेश्वरसे इसी प्रकारका प्रश्न किया था।
सनत्कुमार बोले –
भगवन्! शिवसे भिन्न जो देवता हैं,
उन सबकी पूजाके लिये सर्वत्र प्रायः
वेर (मूर्ति)-मात्र ही अधिक संख्यामें
देखा और सुना जाता है।
केवल भगवान् शिवकी ही पूजामें
लिंग और वेर दोनोंका उपयोग देखनेमें आता है।
अतः कल्याणमय नन्दिकेश्वर!
इस विषयमें जो तत्त्वकी बात हो,
उसे मुझे इस प्रकार बताइये,
जिससे अच्छी तरह समझमें आ जाय।
नन्दिकेश्वरने कहा –
निष्पाप ब्रह्मकुमार!
आपके इस प्रश्नका हम-जैसे लोगोंके द्वारा
कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता;
क्योंकि यह गोपनीय विषय है और
लिंग साक्षात् ब्रह्मका प्रतीक है
तथापि आप शिवभक्त हैं।
इसलिये इस विषयमें
भगवान् शिवने जो कुछ बताया है,
उसे ही आपके समक्ष कहता हूँ।
भगवान् शिव ब्रह्मस्वरूप और
निष्कल (निराकार) हैं;
इसलिये उन्हींकी पूजामें
निष्कल लिंगका उपयोग होता है।
सम्पूर्ण वेदोंका यही मत है।
शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे हुई?
सनत्कुमार बोले –
महाभाग योगीन्द्र!
आपने भगवान् शिव तथा दूसरे देवताओंके पूजनमें
लिंग और वेरके (मूर्तिके) प्रचारका
जो रहस्य विभागपूर्वक बताया है, वह यथार्थ है।
इसलिये लिंग (निराकार) और वेरकी (मूर्तिकी)
उत्पत्तिका जो उत्तम वृत्तान्त है,
उसीको मैं इस समय सुनना चाहता हूँ।
लिंगके प्राकट्यका रहस्य सूचित करनेवाला प्रसंग मुझे सुनाइये।
इसके उत्तरमें नन्दिकेश्वरने
भगवान् महादेवके
निष्कल (निराकार) स्वरूप लिंगके
आविर्भावका प्रसंग सुनाना आरम्भ किया।
उन्होंने ब्रह्मा तथा विष्णुके विवाद,
देवताओंकी व्याकुलता एवं चिन्ता,
देवताओंका दिव्य कैलास-शिखरपर गमन,
उनके द्वारा चन्द्रशेखर महादेवका स्तवन,
देवताओंसे प्रेरित हुए महादेवजीका
ब्रह्मा और विष्णुके विवाद-स्थलमें आगमन
तथा दोनोंके बीचमें निष्कल आदि-अन्तरहित
भीषण अग्निस्तम्भके रूपमें उनका आविर्भाव
आदि प्रसंगोंकी कथा कही।
तदनन्तर श्रीब्रह्मा और विष्णु
दोनोंके द्वारा उस ज्योतिर्मय स्तम्भकी ऊँचाई और
गहराईका थाह लेनेकी चेष्टा
एवं केतकीपुष्पके शाप-वरदान
आदिके प्रसंग भी सुनाये।
भगवान् शिव के ज्योतिर्लिंग का अग्नि-स्तम्भ के रूप में प्रकट होना
विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णुके बीचमें अग्नि-स्तम्भका (ज्योतिर्मयलिंग) का प्रकट होना
तथा उसके ओर-छोरका पता न पाकर
उन दोनोंका उसे प्रणाम करना –
यह प्रसंग शिव पुराण के
रुद्रसंहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड के अध्याय 7 में आता है।
यह प्रसंग दूसरे पेज में विस्तार से दिया गया है।
महेश्वरका ब्रह्मा और विष्णुको
अपने निष्कल (निराकार) और सकल (साकार) स्वरूपका परिचय देते हुए
लिंगपूजनका महत्त्व बताना नन्दिकेश्वर कहते हैं –
तदनन्तर वे दोनों – ब्रह्मा और विष्णु भगवान् शंकरको प्रणाम करके
दोनों हाथ जोड़ उनके दायें-बायें भागमें चुपचाप खड़े हो गये।
फिर, उन्होंने वहाँ साक्षात् प्रकट पूजनीय महादेवजीको
श्रेष्ठ आसनपर स्थापित करके
पवित्र पुरुष-वस्तुओंद्वारा उनका पूजन किया।
दीर्घकालतक अविकृतभावसे सुस्थिर रहनेवाली वस्तुओंको
“पुरुष-वस्तु” कहते हैं और
अल्पकालतक ही टिकनेवाली क्षणभंगुर वस्तुएँ
“प्राकृत वस्तु” कहलाती हैं।
इस तरह वस्तुके ये दो भेद जानने चाहिये।
किन पुरुष-वस्तुओंसे
उन्होंने भगवान् शिवका पूजन किया, यह बताया जाता है –
हार, नूपुर, केयूर, किरीट, मणिमय कुण्डल,
यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्प-माला, रेशमी वस्त्र,
हार, मुद्रिका, पुष्प, ताम्बूल, कपूर, चन्दन एवं
अगुरुका अनुलेप, धूप, दीप, श्वेतछत्र, व्यजन, ध्वजा, चँवर
तथा अन्यान्य दिव्य उपहारोंद्वारा,
जिनका वैभव वाणी और मनकी पहुँचसे परे था,
जो केवल पशुपति (परमात्मा)-के ही योग्य थे और
जिन्हें पशु (बद्ध जीव) कदापि नहीं पा सकते थे,
उन दोनोंने अपने स्वामी महेश्वरका पूजन किया।
महाशिवरात्रि को शिवलिंग की पूजा का महत्व
सबसे पहले वहाँ ब्रह्मा और
विष्णुने भगवान् शंकरकी पूजा की।
इससे प्रसन्न हो भक्तिपूर्वक भगवान् शिवने
वहाँ नम्र-भावसे खड़े हुए
उन दोनों देवताओंसे कहा –
महेश्वर बोले –
पुत्रो! आजका दिन एक महान् दिन है।
इसमें तुम्हारे द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है,
इससे मैं तुमलोगोंपर बहुत प्रसन्न हूँ।
इसी कारण यह दिन
परम पवित्र और महान्-से-महान् होगा।
आजकी यह तिथि
“शिवरात्रि” के नामसे विख्यात होकर
मेरे लिये परम प्रिय होगी।
इसके समयमें जो
मेरे लिंग (निष्कल – अंग-आकृतिसे रहित निराकार स्वरूपके प्रतीक)
वेर (सकल – साकाररूपके प्रतीक विग्रह) –
की पूजा करेगा,
वह पुरुष जगत्की सृष्टि और पालन आदि कार्य भी कर सकता है।
जो शिवरात्रिको दिन-रात
निराहार एवं जितेन्द्रिय रहकर
अपनी शक्तिके अनुसार
निश्चलभावसे मेरी यथोचित पूजा करेगा,
उसको मिलनेवाले फलका वर्णन सुनो।
एक वर्षतक निरन्तर मेरी पूजा करनेपर
जो फल मिलता है, वह सारा फल
केवल शिवरात्रिको मेरा पूजन करनेसे
मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है।
जैसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय
समुद्रकी वृद्धिका अवसर है,
उसी प्रकार यह शिवरात्रि तिथि
मेरे धर्मकी वृद्धिका समय है।
इस तिथिमें मेरी स्थापना आदिका
मंगलमय उत्सव होना चाहिये।
पहले मैं जब “ज्योतिर्मय स्तम्भरूपसे प्रकट हुआ था,
वह समय मार्गशीर्षमासमें आर्द्रा नक्षत्रसे युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा है।
जो पुरुष मार्गशीर्षमासमें आर्द्रा नक्षत्र होनेपर
पार्वतीसहित मेरा दर्शन करता है
अथवा मेरी मूर्ति या लिंगकी ही झाँकी करता है,
वह मेरे लिये कार्तिकेयसे भी अधिक प्रिय है।
उस शुभ दिनको मेरे दर्शनमात्रसे
पूरा फल प्राप्त होता है।
यदि दर्शनके साथ-साथ मेरा पूजन भी किया जाय
तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि
उसका वाणीद्वारा वर्णन नहीं हो सकता।
वहाँपर मैं लिंगरूपसे प्रकट होकर
बहुत बड़ा हो गया था।
अतः उस लिंगके कारण यह भूतल
“लिंगस्थान” के नामसे प्रसिद्ध हुआ।
जगत्के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें,
इसके लिये यह अनादि और अनन्त ज्योतिःस्तम्भ
अथवा ज्योतिर्मय लिंग अत्यन्त छोटा हो जायगा।
यह लिंग सब प्रकारके भोग सुलभ करानेवाला
तथा भोग और मोक्षका एकमात्र साधन है।
इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान किया जाय
तो यह प्राणियोंको जन्म और मृत्युके कष्टसे छुड़ानेवाला है।
अग्निके पहाड़-जैसा जो यह शिवलिंग यहाँ प्रकट हुआ है,
इसके कारण यह स्थान “अरुणाचल” नामसे प्रसिद्ध होगा।
यहाँ अनेक प्रकारके
बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे।
इस स्थानमें निवास करने या मरनेसे
जीवोंका मोक्षतक हो जायगा।
मेरे दो रूप हैं –
“सकल” और “निष्कल”।
दूसरे किसीके ऐसे रूप नहीं हैं।
पहले मैं स्तम्भरूपसे प्रकट हुआ;
फिर अपने साक्षात्-रूपसे।
“ब्रह्मभाव” मेरा “निष्कल” रूप है और
“महेश्वरभाव” “सकल” रूप।
ये दोनों मेरे ही सिद्धरूप हैं।
मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूँ।
कलायुक्त और अकल
मेरे ही स्वरूप हैं।
ब्रह्मरूप होनेके कारण
मैं ईश्वर भी हूँ।
जीवोंपर अनुग्रह आदि करना
मेरा कार्य है।
ब्रह्मा और केशव!
मैं सबसे बृहत् और
जगत्की वृद्धि करनेवाला होनेके कारण
“ब्रह्म” कहलाता हूँ।
सर्वत्र समरूपसे स्थित और
व्यापक होनेसे मैं ही सबका आत्मा हूँ।
सर्गसे लेकर अनुग्रहतक (आत्मा या ईश्वरसे भिन्न)
जो जगत्-सम्बन्धी पाँच कृत्य हैं,
वे सदा मेरे ही हैं,
मेरे अतिरिक्त दूसरे किसीके नहीं हैं;
क्योंकि मैं ही सबका ईश्वर हूँ।
पहले मेरी ब्रह्मरूपताका बोध करानेके लिये
“निष्कल” लिंग प्रकट हुआ था।
फिर अज्ञात ईश्वरत्वका
साक्षात्कार करानेके निमित्त
मैं साक्षात् जगदीश्वर ही
“सकल” रूपमें तत्काल प्रकट हो गया।
अतः मुझमें जो ईशत्व है,
उसे ही मेरा सकलरूप जानना चाहिये
तथा जो यह मेरा निष्कल स्तम्भ है,
वह मेरे ब्रह्मस्वरूपका बोध करानेवाला है।
यह मेरा ही लिंग (चिह्न) है।
तुम दोनों प्रतिदिन यहाँ रहकर
इसका पूजन करो।
यह मेरा ही स्वरूप है और
मेरे सामीप्यकी प्राप्ति करानेवाला है।
लिंग और लिंगीमें नित्य अभेद होनेके कारण
मेरे इस लिंगका महान् पुरुषोंको भी
पूजन करना चाहिये।
मेरे एक लिंगकी स्थापना करनेका यह फल बताया गया है कि
उपासकको मेरी समानताकी प्राप्ति हो जाती है।
यदि एकके बाद दूसरे शिव-लिंगकी भी स्थापना कर दी गयी,
तब तो उपासकको फलरूपसे मेरे साथ
एकत्व (सायुज्य मोक्ष) रूप फल प्राप्त होता है।
प्रधानतया शिवलिंगकी ही स्थापना करनी चाहिये।
मूर्तिकी स्थापना उसकी अपेक्षा गौण कर्म है।
शिवलिंगके अभावमें सब ओरसे
सवेर (मूर्तियुक्त) होनेपर भी वह स्थान
क्षेत्र नहीं कहलाता।
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